सब कुछ उसमें वह सबमें है
झर-झर बरस रहा है बादल 
भर ले कोई खोले आँचल, 
सिक्त हुआ आलम जब सारा 
क्यों प्यासा है मन यह पागल !
सर-सर बहता पवन सुहाना 
जैसे गाये मधुर तराना, 
लहराते अरण्य प्रांतर जब
 पढ़ता क्यों दिल गमे फ़साना !
चमक दामिनी दमके अंबर
प्रकटा क्षण में भीतर-बाहर, 
हुआ दीप्त जब कण-कण भू का 
अंधकार में क्यों डूबा उर !
मह-मह गन्ध लुटाता उपवन 
सुख-सौरभ से भर जाता वन, 
हुई सुवासित सभी दिशाएं 
कुम्हलाया सा क्यों व्याकुल बन !
जर्रे-जर्रे बसा आकाश 
दूर नहीं वह हृदय के पास, 
सब कुछ उसमें वह सबमें है 
फिर क्यों कहे मिल जाये काश ! 

बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन
बधाई
स्वागत व आभार !
हटाएंफिर क्यों कहे की मिल जाए काश ... " कस्तूरी मृग कुंडल बसे " यही तो बात है । अति सुन्दर भाव ।
जवाब देंहटाएंमूल बात को ग्रहण करने हेतु स्वागत व आभार !
हटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसब कुछ उसमें ... वह सबमें हैं ...
जवाब देंहटाएंगहरी सटीक सुन्दर कल्पना ...