पूर्ण गगन प्रतिबिम्बित जिसमें
ठहर गया प्रमुदित मन-अंतर
नयन मुंदे, अधर मुस्काते,
परम बुद्ध की शुभ मूरत पर
लोग युगों से वारी जाते !
मोहक मुद्रा अभय बरसता
थिर हो जैसे सर्वर दर्पण,
पूर्ण गगन प्रतिबिम्बित जिसमें
चमकें चन्द्र और तारा गण !
मीलों भटक-भटक राही को
जैसे कोई ठाँव मिल गया,
जंगल-जंगल घूम रहा था
आखिर सुंदर गाँव मिल गया !
क्या पाया जब पूछा जग ने
बुद्ध हँसे, कुछ नहीं कमाया,
बोझ लिए फिरता था मन जो
एक-एक कर उन्हें बहाया !
है हल्का उर उड़े गगन में
कभी कोई न तृषा सताये,
चाह मिटी तो जग पीछे था
करुणा सहज परम बरसाए !
ठहर गया प्रमुदित मन-अंतर
जवाब देंहटाएंनयन मुंदे, अधर मुस्काते
बहुत खूब
स्वागत व आभार !
हटाएंबुद्ध की भंगिमा बहुत मन मोहक है, वही शीलतता आपके शब्दों मे छलक उठी है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंमन में कहीं गहरे उतर गई आपकी रचना,सुंदर रचना।
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