जाग भीतर कौन जाने
एक का ही है पसारा
गुनगुनाता जगत सारा,
निज-पराया, अशुभ-शुभता,
स्वप्न में मन बुने कारा !
मित्र बनकर स्नेह करता
शत्रु बन खुद को डराता,
जाग कर देखे, कहाँ कुछ ?
सकल पल में हवा होता !
जगत भी यह रोज़ मिटता
आज में कल जा समाता,
अटल भावी में यही कल
देखते ही जा सिमटता !
नींद में किस लोक में था
भान मन को कहाँ होता,
जाग भीतर कौन जाने
खबर स्वप्नों की सुनाता !
अचल कोई कड़ी भी है
जो पिरोती है समय को,
जिस पटल पर ख़्वाब दिखते
सदा देती जो अभय को !
क्या वही अपना सुहृद जो
रात-दिन है संग अपने,
जागता हो हृदय या फिर
रात बुनता मर्त्य सपने !
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
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