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मंगलवार, दिसंबर 28

हो निशब्द जिस पल में अंतर


हो निशब्द जिस पल में अंतर

शब्दों से ही परिचय मिलता

उसके पार न जाता कोई,

शब्दों की इक आड़ बना ली

कहाँ कभी मिल पाता कोई !

 

ऊपर-ऊपर यूँ लगता है

शब्द हमें आपस में जोड़ें,

किन्तु कवच सा पहना इनको

बाहर ही बाहर रुख मोड़ें !

 

भीतर सभी अकेले जग में

खुद ही खुद से बातें करते,

एक दुर्ग शब्दों का गढ़ के

बैठ वहीं से घातें करते !

 

खुद से ही तो लड़ते रहते

खुद को ही तो घायल करते,

खुद को सम्बन्धों में पाके

खुद से ही तो दूर भागते !

 

हो निशब्द जिस पल में अंतर

एक ऊष्मा जग जाती है,

दूजे के भी पार हुई जो

उसकी खबर लिए आती है !

 

दिल से दिल की बात भी यहाँ

उसी मौन में घट जाती है,

शब्दों की सीमा बाहर है

भीतर पीड़ा छंट जाती है !

 

कोरे शब्दों से न होगा

मौन छुपा हो भीतर जिनमें,

वे ही वार करेंगे दिल पर

सन्नाटा उग आया जिनमें !


सोमवार, अक्टूबर 18

लेकिन सच है पार शब्द के


लेकिन सच है पार शब्द के


कुदरत अपने गहन मौन में

निशदिन उसकी खबर दे रही,

सूक्ष्म इशारे करे विपिन भी 

गुपचुप वन की डगर कह रही ! 


पल में नभ पर बादल छाते

गरज-गरज कर कुछ कह जाते

पानी की बौछारें भी तो

पाकर कितने मन खिल जाते !


जो भी कुछ जग दे सकता है

शब्दों में ही घटता है वह,

लेकिन सच है पार शब्द के

जो निशब्द में ही मिलता है !


‘सावधान’ का बोर्ड लगाये

हर कोई बैठा है घर में,

मिलना फिर कैसे सम्भव हो

लौट गया वह तो बाहर से !


या फिर चौकीदार है बुद्धि

मालिक से मिलने ना देती,

ऊसर-ऊसर ही रह जाता

अंतर को खिलने ना देती !


प्राणों का सहयोग चाहिए

भीतर सखा  प्रवेश पा सके,

सच को जो भी पाना चाहे

मुक्त गगन सा गीत गा सके !


गुरुवार, सितंबर 20

शब्दों की सीमा बाहर है



शब्दों की सीमा बाहर है


शब्दों से ही परिचय मिलता
उसके पार न जाता कोई,
शब्दों की इक आड़ बना ली
कहाँ कभी मिल पाता कोई !

ऊपर ऊपर यूँ लगता है
शब्द हमें आपस में जोड़ें,
किन्तु कवच सा पहना इनको
बाहर ही बाहर रुख मोड़ें !

भीतर सभी अकेले जग में
खुद ही खुद से बातें करते,
एक दुर्ग शब्दों का गढ़ के
बैठ वहीं से घातें करते !

खुद से ही तो लड़ते रहते
खुद को ही तो घायल करते,
खुद को सम्बन्धों में पाके
खुद से ही तो दूर भागते !

हो निशब्द में जिस पल अंतर
एक ऊष्मा जग जाती है,
दूजे के भी पार हुई जो
उसकी खबर लिए आती है !

दिल से दिल की बात भी यहाँ
उसी मौन में घट जाती है,
शब्दों की सीमा बाहर है
भीतर पीड़ा छंट जाती है !

कोरे शब्दों से न होगा
मौन छुपा हो भीतर जिनमें,
वे ही वार करेंगे दिल पर
सन्नाटा उग आया जिनमें !