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शनिवार, दिसंबर 23

मेघा ढूँढें आसमान को

मेघा ढूँढें आसमान को 


मंज़िल पर ही बैठ पूछता 

और कहाँ ? कितना जाना है ?

क्यों न कहें उर को दीवाना 

अब तक भेद नहीं जाना है !


सागर में रहकर ज्यों लहरें 

घर का पता पूछती मिलतीं,

मेघा ढूँढें आसमान को 

घोर घटाएँ नीर खोजतीं !


लिए प्रेम का एक सरोवर 

प्यासा उर प्यासा रह जाता, 

पनघट तीर खड़ा है राही 

इधर-उधर तक टोह लगाता !


भीतर एक आँख जगती है 

कोई साथ चला करता है, 

देख न पाये चाहे उसको 

योग-क्षेम धारण करता है !


आराध्य बना लेगा अंतर 

मस्तक जिस दिन झुक जाएगा, 

गीत समर्पण के फूटेंगे  

प्राणों में बसंत छायेगा !


सोमवार, जुलाई 31

खुले न द्वार हृदय का जब तक

खुले न द्वार हृदय  का जब तक 


जीवन चिर बसंत सा मिलता 

यदि  कोई बाधा मत डाले, 

सुरभित ब्रह्मकमल सा खिलता 

आत्ममुग्धता ग़र तज डाले !


दिग दिगंत में जो फैला है 

छोटा सा बन हुआ संकुचित, 

खुले न द्वार हृदय  का जब तक 

कैसे मिलन घटेगा समुचित !


 रूप धरा वामन, विराट है

छा जाता भू-स्वर्ग हर कहीं, 

मिट जाये जो पा लेता है 

 नहीं जानता उर राज यही !


जो पहले था, सदा  रहेगा 

उसका स्वाद जरा लग जाये, 

दिल दीवाना रहे ठगा सा 

बार-बार मिट रहे रिझाये !


सोमवार, मई 27

फिर फिर भीतर दीप जलाना होगा



फिर फिर भीतर दीप जलाना होगा


नव बसंत का स्वागत करने
जग को अपनेपन से भरने
उस अनंत के रंग समेटे
हर दर बन्दनवार सजाना होगा !

सृष्टि सुनाती मौन गीत जो
कण-कण में छुपा संगीत जो
आशा के स्वर मिला सहज ही
प्रतिपल नूतन राग सुनाना होगा !

अम्बर से रस धार बह रही
भीगी वसुधा वार सह रही
श्रम का स्वेद बहाकर हमको
नव अंकुर हर बार खिलाना होगा !

टूटे मत विश्वास सदय का
मुरझाये न स्वप्न हृदय का
गहराई में सभी जुड़े हैं
भाव यही हर बार जताना होगा !

मंगलवार, फ़रवरी 5

नव बसंत आया



नव बसंत आया

Image result for सरसों का खेत
सरसों फूली कूकी कोयल
पंछी चहके कुदरत चंचल,
नवल राग गाया जीवन ने
नव बसंत लाया कोलाहल !

भँवरे जैसे तम से जागे
फूल-फूल से मिलने भागे,
तितली दल नव वसन धरे है
मधुमास कहता बढ़ो आगे !

आम्र मंजरी बौराई सी
निज सुरभि कलश का पट खोले,
रात-बिरात का होश न रखे
जी चाहे जब कोकिल बोले !

कुसुमों में भी लगी होड़ है
धारे नूतन रूप विकसते,
हरी-भरी बगिया में जैसे
कण-कण भू का सजा हुलसते !

किसके आमन्त्रण पर आखिर
रंगों का अंबार लगा है,
पवन बसंती मदमाती सी
मनहर बन्दनवार सजा है !

शीत उठाये डेरा डंडा
चहूँ ओर भर गया उल्लास,
नई चेतना भरने आया
समाई जीवन में नव आस !


गुरुवार, फ़रवरी 8

शून्य और पूर्ण



शून्य और पूर्ण


 तज देता है पात शिशिर में पेड़
ठूंठ सा खड़ा होने की ताकत रखता है
 अर्पित करे निज आहुति
सृष्टि महायज्ञ में
नुकीली चुभन शीत की सहता है
भर जाता कोमल कोंपलों औ’ नव पल्लवों से
 बसंत में वही खिल उठता है
त्याग देता घरबार सन्यासी
स्वागत करने को हर द्वार आतुर होता है
पतझड़ के बाद ही आता है बसंत
समर्पण के बाद ही मिलता है अनंत
शून्य हो सका जो वह पूर्ण बनता है
हीरा ही वर्षों माटी में सनता है !


सोमवार, जुलाई 3

जीवन की शाम

जीवन की शाम 

कितने बसंत बीते...याद नहीं 
मन आज थका सा लगता

मकड़जाल जो खुद ही बुना है
और अब जिसमें दम घुटता है
जमीनें जो कभी खरीदी गयीं थी
इमारतें जो कभी बनवायी गयी थीं
जिनमें कोई नहीं रहता अब
जो कभी ख़ुशी देने की बनीं थीं सबब
अब बनी हैं जी का जंजाल
घड़ी विश्राम की आयी
 समेटना है संसार !

हाथों में अब वह ताकत नहीं
पैरों को राहों की तलाश नहीं
अब तो मन चाहता है
सुकून के दो चार पल
और तन चाहता है
इत्मीनान से बीते आज और कल
खबर नहीं परसों की भी
कौन करे बात बरसों की
बिन बुलाये चले आते हैं
कुछ अनचाहे विचार आसपास
 होने लगा है कमजोरी का अहसास

पहले की सी सुबह अब भी होती है
सूरज चढ़ता है, शाम ढलती है
पर नहीं अब दिल की हालत सम्भलती है
कितने बसंत बीते...याद नहीं 
मन आज थका सा लगता !

उन सभी बुजुर्गों को समर्पित जो वृद्ध हो चले हैं.


बुधवार, फ़रवरी 10

आया बसंत

आया बसंत



सरसों के पीले फूलों पर
गुनगुन गाते डोल रहे हैं,
मतवाले मदमस्त भ्रमर ये
कौन सी भाषा बोल रहे हैं ?

पात झरे भई शाख गुलाबी
आड़ू के वृक्ष इतराते,
सूनी डालें सहजन की सज
आसमान से करती बातें !

कंचन भी कतार में खड़ा
गुपचुप भीतर गुनता है कुछ,
माह फरवरी आया है तो
वह भी है खिलने को आतुर

सारी कायनात महकी है
घुली पवन में मादक गंध,
रस की कोई गागर छलके
बहा जा रहा है मकरंद !

मन को सुमन बना, कर अर्पित
मुस्कानों को खुली छूट दें,
प्रीत की इक रस धार बहाकर
ये अनंत सौगात लूट लें !

शुक्रवार, अक्टूबर 30

आयी रुत हेमंत की

आयी रुत हेमंत की

सुने होंगे गीत बसंत के कई
शरद की बात भी की होगी
है हेमंत भी उतना ही सलोना
रूबरू शायद नहीं.. यह रुत हुई होगी  
 सुबह हल्की धुंध में ढकी
पर शीत अभी दूर है
भली लगे तन पर जो
बहती शीतल पवन जरूर है
सहन हो सकती है धूप अब
क्यारियां खुद गयीं बगीचों में
हो रही पौध की तैयारी
बसंत की रौनक आखिर
हेमंत की है जिम्मेदारी
आने ही वाली है कार्तिक की अमा
जल उठेगी जब कोने कोने
माटी के दीयों में शमा 
मौसम बदल रहा है
कितना खूबसूरत युग-युग से
 प्रकृति का चलन रहा है 

शनिवार, फ़रवरी 28

कोंपल कोंपल रस झरता


कोंपल कोंपल रस झरता

मदमस्त हुआ आलम सारा
आया वसंत नव कुसुम खिले ,
उमड़ी आती मधुमय सुरभि
पौधों के सोये कोष खुले !

खलिहानों पर छायी मस्ती
शुभ पीताम्बर ओढ़े हँसते,
जल धाराएँ बह निकलीं हैं
हटा शीत की चादर तन से !

तंद्र तज जागे वन प्रान्तर
जीवन से फिर हुआ मिलन,
छूट गया अवांछित था जो
जाग उठा कोई नव रंग !

जाना पहचाना सा प्रियतम
आया मनहर रूप धरे,
बासंती जब पवन बहे तो
सूने अंतर भये हरे !

जीवन फिर अंगड़ाई लेता
नव रूप लिये हँसता खिलता,
ऋतु फागुनी मादक मोहक
कोंपल कोंपल रस झरता !



गुरुवार, जनवरी 29

बन बसंत जो साथ सदा हो

बन बसंत जो साथ सदा हो



किसकी राह तके जाता मन
खोल द्वार दरवाजे बैठा
किसकी आस किये जाता मन !

एक पाहुना आया था कल
एक हँसी भीतर जागी थी,
हुई लुप्त फिर घट सूना है
फिर से इक मन्नत माँगी थी !

किसकी बाट जोहता हर पल 
किसकी याद संजोये बैठा
किसकी चाह किये जाता मन !

मिला बहुत पर नहीं वह मिला
बन बसंत जो साथ सदा हो,
स्वप्न नहीं बहलाते, ढूढें  
तृप्ति का जो मधुर राग हो !

किसको यह आवाज लगाये
किसकी आहट को तरसे
किसकी प्यास भरे जाता मन !