बुधवार, मई 15

उस सन्नाटे के पीछे तब

उस सन्नाटे के पीछे तब


जहाँ शब्द साथ न देते हों 

जब सूना-सूना अंबर हो, 

घन का कतरा भी नहीं एक   

जो ढक लेता है सूरज को !


उस ख़ालीपन को जो भर दें  

भावों का भी अभाव लगता, 

उस सन्नाटे के पीछे तब

जाकर उस अनाम से मिलना !


पीता कोई भर-भर प्याला

जीवन की मदिरा है बँटती,

खड़ा उजाला चंद कदम पर

हो रात अँधेरी कितनी भी !


11 टिप्‍पणियां:

  1. रात और अँधेरा है कहीं ? अखबार टीवी रेडियो तो नहीं बताते हैं | उजाला ही उजाला है हर तरफ है |

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    1. सत्य को बताया नहीं जाता, वह तो जग ज़ाहिर है, भारत की भोली-भाली जनता को सही-ग़लत का विवेक सीखने में शायद और वक्त लगेगा

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  3. सचमुच ,रात अंधेरी कितनी देर?
    किरणें छू लें भोर की उतनी देर...।
    ----
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।
    सस्नेह।
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ मई २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  4. उजालेपन की आशा का होना बहुत ज़रूरी है ... इसी आशा में जीवन किआशा है ...

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