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शुक्रवार, फ़रवरी 25

हम आनंद लोक के वासी

हम आनंद लोक के वासी 
मन ही सीमा है मानव की
मन के आगे विस्तीर्ण  गगन, 
ले जाये यदि यह खाई में 
इससे ऊपर है मुक्त पवन !  

जो कंटक भीतर चुभता है
जिसका हमें अभाव खल रहा, 
कोई पीड़ा हमें सताए 
कुछ यदि माँगे नहीं मिल रहा ! 

सब इसकी है कारगुजारी 
मन है एक सधा व्यापारी, 
इसके दांवपेंच जो समझे 
पार हो गया वही खिलाड़ी ! 

हम आनंद लोक के वासी 
यह हमको नीचे ले आता, 
कभी दिखाता दिवास्वप्न यह 
अपनी बातों में उलझाता !  

सुख की आस सदा बंधाता 
सुख आगे ही बढ़ता जाता, 
थिर पल भर रहना ना जाने  
कैसे उससे नर कुछ पाता ! 

घूम रहा हो चक्र सदा जो 
कैसे बन सकता है आश्रय, 
शाश्वत अचल एक सा प्रतिपल 
है स्रोत आनंद का सुखमय ! 

हम हैं एक ऊर्जा अविरत
स्वयं समर्थ, आप्तकामी हम, 
मन छोटा सा ख्वाब दिखाए
डूब-डूब जाते उसमें हम ! 

भुला स्वयं को पीड़ित होते 
खुद की महिमा नहीं जानते, 
सदा से हैं सदा रहेंगे 
भूल यही हम रहे भागते ! 

मुक्ति तभी संभव है अपनी 
मन के पार हुआ जब जाये 
इससे जग को देखें चाहे, 
यह ना जग हममें भर पाए ! 

रविवार, मार्च 29

गाँव बुलाता आज उन्हें फिर

गाँव बुलाता आज उन्हें फिर 


सुख की आशा में घर छोड़ा 
मन में सपने, ले आशाएँ, 
आश्रय नहीं मिला संकट में 
जिन शहरों में बसने आये !

गाँव बुलाता आज उन्हें फिर 
टूटा घर वह याद आ रहा,
वहाँ नहीं होगा भय कोई 
माँ, बाबा का स्नेह बुलाता !

कदमों में इतनी हिम्मत है 
मीलों चलने का दम भरते, 
इस जीवट पर अचरज होता  
क्या लोहे का वे दिल रखते !

एक साथ सब निकल पड़े हैं 
नहीं शिकायत करें किसी से,
भारत के ये अति वीर श्रमिक 
बचे रहें बस कोरोना से !

बुधवार, दिसंबर 7

राह देखता कोई भीतर


राह देखता कोई भीतर 

बाहर धूप घनी हो कितनी 
घर में शीतल छाँव घनेरी,
ऊबड़-खाबड़ पथरीला मग
दे आमन्त्रण सदा वही  !

लहरें तट से टकरा घायल 
घर जा पुनः ऊर्जित होतीं,
मन लहरों सा सदा डोलता 
घर जाने की सुध न आती !

राह देखता कोई भीतर 
मीलों विस्तृत नीलगगन सा,
क्लांत बटोही पा जाये ज्यों 
चिर आश्रय सुखद बसेरा !

किंतु स्वप्न में खोया अंतर 
घर से दूर निकल आया है,
भूल-भुलैया में जगती की 
स्वयं ही स्वयं को भटकाया है !










सोमवार, जुलाई 1

पिता की स्मृति में


पिता की स्मृति में


एक आश्रय स्थल होता है पिता
बरगद का वृक्ष ज्यों विशाल
नहीं रह सके माँ के बिना
या नहीं रह सकीं वे बिना आपके
सो चले गये उसी राह
छोड़ सभी को उनके हाल....

पूर्ण हुई एक जीवन यात्रा
अथवा शुरू हुआ नवजीवन
भर गया है स्मृतियों से
मन का आंगन
सभी लगाये हैं होड़ आगे आने की
लालायित, उपस्थिति अपनी जताने की
उजाला बन कर जो पथ पर
चलेंगी साथ हमारे
बगीचे से फूल चुनते
सर्दियों की धूप में घंटों
अख़बार पढ़ते
नैनी के बच्चे को खिलाते
मंगलवार को पूजा की तैयारी करते
जाने कितने पल आपने संवारे....

विदा किया है भरे मन से
काया अशक्त हो चुकी थी
पीड़ा बनी थी साथी
सो जाना ही था पंछी को
 छोड़कर यह टूटा फूटा बसेरा
नये नीड़ की तलाश में

जहाँ मिलेगा एक नया सवेरा... 

(पिछले माह १८ जून को ससुर जी ने देह त्याग दिया, काशी में उनको अंतिम विदाई देकर आज ही हम लौटे हैं)