गाँव बुलाता आज उन्हें फिर
सुख की आशा में घर छोड़ा
मन में सपने, ले आशाएँ,
आश्रय नहीं मिला संकट में
जिन शहरों में बसने आये !
गाँव बुलाता आज उन्हें फिर
टूटा घर वह याद आ रहा,
वहाँ नहीं होगा भय कोई
माँ, बाबा का स्नेह बुलाता !
कदमों में इतनी हिम्मत है
मीलों चलने का दम भरते,
इस जीवट पर अचरज होता
क्या लोहे का वे दिल रखते !
एक साथ सब निकल पड़े हैं
नहीं शिकायत करें किसी से,
भारत के ये अति वीर श्रमिक
बचे रहें बस कोरोना से !
दुआ कबूल हो। आमीन।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंकोरोना से बचिए।
अपने और अपनों के लिए घर में ही रहिए।
स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंदिल को छूती रचना।
जवाब देंहटाएंवाह!अनीता जी ,बेहतरीन!
जवाब देंहटाएंआमीन ...
जवाब देंहटाएंख़तरा तो बहुत ले रहे हैं ये ... सामवेदनशील शहर हो गया है इस आफ़त में छोड़ रहा है उन्हें जिन्होंने इसे बनाया ...
भावपूर्ण रचना ...
अब हालात सुधर रहे हैं, उन्हें आश्रय मिल रहा है
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसामयिक एवं मार्मिक रचना , आभार
जवाब देंहटाएं