मौन
की नदी
तेरे
और मेरे मध्य कौन सी थी रुकावट
दिन-रात
जब आती थी तेरे कदमों की आहट
तब
राह रोक खड़ी हो जाती थी मेरी ही घबराहट !
कहाँ
तुझे बिठाना है, क्या-क्या दिखलाना है
बस
इसी प्रतीक्षा में... दिन गुजरते रहे
तुझे
पाने के स्वप्न मन में पलते रहे
एक
मदहोशी थी इस ख्याल में
तू
आयेगा इक दिन इस बात में
और
आज वह आस टूटी है
हर
कशमकश दिल से छूटी है
अब
न तलाश बाकी है न जुस्तजू तेरी
कोई
आवाज भी नहीं आती मेरी
खोजी
थे जो.. कहीं नहीं हैं वे नयन
शेष
अब न विरह कोई न वह लगन !