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सोमवार, अक्टूबर 26

मौन की नदी

मौन की नदी

तेरे और मेरे मध्य कौन सी थी रुकावट
दिन-रात जब आती थी तेरे कदमों की आहट
तब राह रोक खड़ी हो जाती थी मेरी ही घबराहट !
कहाँ तुझे बिठाना है, क्या-क्या दिखलाना है
बस इसी प्रतीक्षा में... दिन गुजरते रहे
तुझे पाने के स्वप्न मन में पलते रहे
एक मदहोशी थी इस ख्याल में
तू आयेगा इक दिन इस बात में
और आज वह आस टूटी है
हर कशमकश दिल से छूटी है
अब न तलाश बाकी है न जुस्तजू तेरी
कोई आवाज भी नहीं आती मेरी
खोजी थे जो.. कहीं नहीं हैं वे नयन
शेष अब न विरह कोई न वह लगन ! 

गुरुवार, अगस्त 21

जगे नयना इस जतन में

जगे नयना इस जतन में

शब्द चुन-चुन के सजाए
भाव के दीपक जलाए,
पहर बीते सो न पाए
गीत इक जन्मा था तब !

कुछ घटेगा आस मन में
तम छंटेगा इस चमन में,
जगे नयना इस जतन में
प्रीत इक जन्मी थी तब !

है नहीं... वही तो है
शै दिखे... यही तो है,
 ढूँढें जिसे.. कहीं तो है
विश्वास इक जन्मा था तब !  


सोमवार, दिसंबर 30

नये वर्ष की शुभकामनायें


नये वर्ष की शुभकामनायें 


जब तक हाथों में शक्ति है
जब तक इन कदमों में बल है,
मन-बुद्धि जब तक सक्षम हैं
तब तक ही समझें कि हम हैं !

जब तक श्वासें है इस तन में
जब तक टिकी है आशा मन में,
तब तक ही जीवित है मानव
वरना क्या रखा जीवन में !

श्वास में कम्पन न होता हो
मन स्वार्थ में न रोता हो,
बुद्धि सबको निज ही माने
स्वहित, परहित में खोता हो !

जब तक स्व केंद्रित स्वयं पर
तब तक दुःख से मुक्ति कहाँ है,
ज्यों-ज्यों स्व विस्तृत होता है
अंतर का बंधन भी कहाँ है !

जब तक खुद को नश्वर जाना
अविनाशी शाश्वत न माने,
तब तक भय के वश में मानव
आनंद को स्वप्न ही जाने !


मंगलवार, अप्रैल 17

चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा



चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा


मानस की घाटी में श्रद्धा का बीज गिरा
प्रज्ञा की डाली पर शांति का पुष्प उगा,
अंतर की सुरभि से जीवन बाहर महका
रिस रिस कर प्रेम बहा अधरों से हास पगा !

कण-कण में आस जगी नैनों में उजास भरा
हुलसा तन का पोर पोर भीतर था गीत जगा,
बाहर इक लय बिखरी जीवन संगीत बहा
कदमों में थिरकन भर अंतर में नृत्य जगा !

मुस्काई हर धड़कन लहराया जब यौवन
अपने ही आंगन में प्रियतम का द्वार खुला,
लहरों सी बन पुलकन उसकी ही बात कहे
बिन बोले सब कह दे अद्भुत यह राग उठा !

हँसता है हर पल वह सूरज की किरणों में
चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा,
पल-पल वह सँग अपने सुंदर यह भाग जगा
देखो यह मस्ती का भीतर है फाग जगा !

युग युग से प्यासी थी धरती का भाग उगा
सरसी बगिया मन की जीवन में तोष जगा,
वह है वह अपना है रह रह यह कोई कहे
सोया था जो कब से अंतर वह आज जगा !