मंगलवार, अप्रैल 17

चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा



चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा


मानस की घाटी में श्रद्धा का बीज गिरा
प्रज्ञा की डाली पर शांति का पुष्प उगा,
अंतर की सुरभि से जीवन बाहर महका
रिस रिस कर प्रेम बहा अधरों से हास पगा !

कण-कण में आस जगी नैनों में उजास भरा
हुलसा तन का पोर पोर भीतर था गीत जगा,
बाहर इक लय बिखरी जीवन संगीत बहा
कदमों में थिरकन भर अंतर में नृत्य जगा !

मुस्काई हर धड़कन लहराया जब यौवन
अपने ही आंगन में प्रियतम का द्वार खुला,
लहरों सी बन पुलकन उसकी ही बात कहे
बिन बोले सब कह दे अद्भुत यह राग उठा !

हँसता है हर पल वह सूरज की किरणों में
चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा,
पल-पल वह सँग अपने सुंदर यह भाग जगा
देखो यह मस्ती का भीतर है फाग जगा !

युग युग से प्यासी थी धरती का भाग उगा
सरसी बगिया मन की जीवन में तोष जगा,
वह है वह अपना है रह रह यह कोई कहे
सोया था जो कब से अंतर वह आज जगा !

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर अनीता जी.............
    मनभावन रचना.

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  2. वह है वह अपना है रह रह यह कोई कहे
    सोया था जो कब से अंतर वह आज जगा !

    bahut sundar post

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  3. युग युग से प्यासी थी धरती का भाग उगा
    सरसी बगिया मन की जीवन में तोष जगा,
    वह है वह अपना है रह रह यह कोई कहे
    सोया था जो कब से अंतर वह आज जगा
    bahut sundar prastuti badhai.

    जवाब देंहटाएं
  4. युग युग से प्यासी थी धरती का भाग उगा
    सरसी बगिया मन की जीवन में तोष जगा,
    वह है वह अपना है रह रह यह कोई कहे
    सोया था जो कब से अंतर वह आज जगा !

    बहुत सुंदर गीत. बधाई अनीता जी.

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  5. सुन्दर! वही चक्र है, पतझड़ है तो बहार भी होगी!

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