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मंगलवार, दिसंबर 8

कविता

कविता

कविता किसी झरने की भांति
सिमटी रहती है गहन कन्दराओं में
और फिर एकाएक फूट पड़ती है झरझर
या फिर बादलों में बूंद बन कर
फिर बरस पड़ती है शीतल फुहार बनकर
बीज बन रहती है मन की माटी में
छुपी रहती है पादप में रुत आने तक
फूल सी एक दिन खिल उठती है
कब आएगी उसकी खबर केवल
अस्तित्त्व को होती है...

शनिवार, अक्टूबर 13

नहीं अचानक मरता कोई


नहीं अचानक मरता कोई


नव अंकुर ने खोली पलकें
घटा मरण जिस घड़ी बीज का,
अंकुर भी तब लुप्त हुआ था
अस्तित्त्व में आया पौधा !

मृत्यु हुई जब उस पौधे की
वृक्ष बना नव पल्लव न्यारे,
यौवन जब वृक्ष पर छाया
कलिकाएँ, पुष्प तब धारे !

किन्तु काल न थमता पल भर
वृक्ष को भी इक दिन जाना है,
देकर बीज जहां को अपना
पुनः धरा पर ही आना है !

नहीं अचानक मरता कोई
जीवन मृत्यु साथ गुंथे हैं,
पल-पल नव जीवन मिलता है
पल-पल हम थोड़ा मरते हैं !

शिशु गया, बालक जन्मा था
यौवन आता, गया किशोर
यौवन भी मृत हो जायेगा
मानव हो जाता जब प्रौढ़ !

वृद्ध को जन्म मिलेगा जिस पल
कहीं प्रौढता खो जायेगी,
नहीं टिकेगी वृद्धावस्था
इक दिन वह भी सो जायेगी

पुनः शिशु बन जग में आये
एक चक्र चलता ही रहता,
युगों-युगों से आते जाते
जीवन का झरना यह बहता !