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मंगलवार, अक्टूबर 22

देव और असुर

देव और असुर 


किन्हीं सबल क्षणों का नाम देव 

और दुर्बल क्षणों का नाम असुर रखकर 

मानव ने मुक्ति पा ली !


जब मन स्वस्थ है, सजग है 

आशान्वित है 

देव है हमारे साथ !


जब क्लांत है मन 

घिरा-घिरा किन्हीं अशुभ ग्रहों से 

माना कहीं नहीं है !


किंतु क्यों रहे मन में विषाद 

क्यों उखड़ें श्वासें 

क्यों निकले स्वेद बिंदु 

क्यों उर तड़पे 

सत्कर्म नहीं कुछ 

सिर्फ़ अक्रियता 

यही है असुर !

सोचें सारी कुंद हो जातीं 

जब साथ नहीं देव !


शनिवार, जनवरी 21

वही मार्ग में संबल बनती


वही मार्ग में संबल बनती


मुख मोड़ा जब-जब प्रकाश से 

हर दुःख इक छाया सा मिलता,

परछाई इक सँग हो लेती 

तज खुद को जब जग को देखा !


बाधा जो सम्मुख आती है 

उसकी भी छाया बनती है,

कभी विषाद, विकार कभी बन  

माया बन जो गहराती है !


ज्योति का इक स्रोत है भीतर 

हम उससे मुख मोड़े रहते, 

पीठ किये इस झिलमिल करते

जग में विचरण करते रहते !


छायाएँ जब मिल आपस में 

नित्य नवीन  रूप धरती हैं, 

कुछ अभिनव कुछ भीत बढ़ातीं 

सदा साथ मन बन रहती हैं !


थम जाए यदि पल भर कोई 

मुड़ कर देखे स्वयं  स्रोत को, 

मन खो जाता तत्क्षण  जैसे 

चकित हुआ सा देखे खुद को !


सदा एक रस सदा साथ है 

ज्योति विमल  जो दिपदिप करती, 

जाने या ना जाने कोई 

वही मार्ग में संबल बनती !


मंगलवार, मार्च 8

गीत जागरण का जो गाए

गीत जागरण का जो गाए 


सच की नाव गुरू खेवटिया 

मीरा ने यह गीत सुनाया, 

जो समर्थ वह पार उतारे 

मन यह भेद समझ कब पाया !


डूबा जाए भवसागर में 

लहरों के आँदोलन में घिर, 

उहापोह, उलझन इस उस की 

राज न सीखा हो कैसे थिर !


सुख-दुःख बादल आ ढक लेते 

ज्ञान सूर्य जो भीतर चमके, 

अंधकार ही जाना उसने 

तम की रात घिरी है कब से !


गीत जागरण का जो गाया  

वही प्रीत का सामवेद है, 

सत्य मशाल जले जब भीतर 

शेष नहीं तिलमात्र खेद है !


झर जाता विषाद जीवन से 

अविरत स्नेह बरसता जाए, 

जागे शक्ति सुप्त अंतर की 

करुणा औ'  उल्लास जगाए !


सोमवार, जून 1

एक जागरण ऐसा भी हो


एक जागरण ऐसा भी हो 

संसार के होने का यही ढंग है 
यहाँ कहीं विषाद कहीं उमंग है 
चिताएँ जलती हैं जहाँ 
निकट ही उत्सव मनता है 
देखे इस दुनिया के विचित्र रंग हैं 
यहाँ चढ़ते सूरज को ही 
सब प्रणाम करते हैं 
कन्धों पर बिठा विजयी की ही 
यहाँ जय जयकार होती 
जिसे खड़ा होने को चाहिए सहारा 
उस पराजित को सब अस्वीकार करते हैं 
समर्थ खड़े होते हैं समर्थों के साथ 
केवल एक वही कहलाते हैं दीनों के नाथ 
पर उन तक पहुँच कहाँ है असमर्थों की 
वे अपने ही अभावों में डूब  रहे हैं दिन-रात !
परमात्मा के होने का ढंग ही निराला है 
संकल्प मात्र से उसने 
यह सारा आयोजन रच डाला है 
उसकी रीत देने की है वह यही सिखाता है 
उसका सान्निध्य पाकर मीरा नाचती 
कोई कबीर गाता है 
वह हमें देता है, उसके बन्दों के बहाने 
हम उसे लौटाते हैं 
प्रीत का खेल लेन-देन का खेल है 
यहाँ एक्य अनुभव करना  
दो का ही मेल है 
वहाँ बटोरने की चाह है 
यह लुटाने की राह है 
वहाँ ज्ञानी बनने में सुख है 
यहाँ अबोधता न होना ही दुःख है