एक जागरण ऐसा भी हो
संसार के होने का यही ढंग है
यहाँ कहीं विषाद कहीं उमंग है
चिताएँ जलती हैं जहाँ
निकट ही उत्सव मनता है
देखे इस दुनिया के विचित्र रंग हैं
यहाँ चढ़ते सूरज को ही
सब प्रणाम करते हैं
कन्धों पर बिठा विजयी की ही
यहाँ जय जयकार होती
जिसे खड़ा होने को चाहिए सहारा
उस पराजित को सब अस्वीकार करते हैं
समर्थ खड़े होते हैं समर्थों के साथ
केवल एक वही कहलाते हैं दीनों के नाथ
पर उन तक पहुँच कहाँ है असमर्थों की
वे अपने ही अभावों में डूब रहे हैं दिन-रात !
परमात्मा के होने का ढंग ही निराला है
संकल्प मात्र से उसने
यह सारा आयोजन रच डाला है
उसकी रीत देने की है वह यही सिखाता है
उसका सान्निध्य पाकर मीरा नाचती
कोई कबीर गाता है
वह हमें देता है, उसके बन्दों के बहाने
हम उसे लौटाते हैं
प्रीत का खेल लेन-देन का खेल है
यहाँ एक्य अनुभव करना
दो का ही मेल है
वहाँ बटोरने की चाह है
यह लुटाने की राह है
वहाँ ज्ञानी बनने में सुख है
यहाँ अबोधता न होना ही दुःख है
स्वीकार परम हो जाए तो यह सुख दुख का खेल शांत हो जाता है ।
जवाब देंहटाएंवाह ! कितनी सुंदर बात, स्वागत व आभार !
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