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रविवार, अक्टूबर 13

बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम

बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम


बरस रहा है कोई अविरत
 झर-झर झर-झर, झर-झर झर-झर
भीग रहा न कोई लेकिन
ढूँढे जाता सरवर, पोखर !

प्रीत गगरिया छलक रही है
 युगों-युगों से सर-सर सर-सर,
प्यासे कंठ न पीते लेकिन
 अकुलाये से खोजें निर्झर !

ज्योति कोई जले निरंतर
बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम,
राह टटोले नहीं मिले पर  
अंधकार में टकराते हम !