शुक्रवार, अक्टूबर 14

बूंद जैसे ओस की हो


बूंद जैसे ओस की हो

जल रही है ज्योति भीतर
तिमिर पर घनघोर छाया,
स्रोत है अमृत का सुखकर
किन्तु मन तृप्ति न पाया !

औषधि के घट भरे हैं
वृक्ष सारे जो हरे हैं,
किन्तु रोगी तन हुए हैं
क्षुधा को हरना न आया !

एक मीठी प्यास जागे
उस अलख की आस जागे,
बस यही कर्त्तव्य भूला
जग तू सारा छान आया !

चाँद पर पहुँचा है मानव
किन्तु पृथ्वी को उजाड़ा,
रौंद डाले हरे जंगल
मानवों ने कहर ढ़ाया !

जहाँ धन ही देवता हो
कौन खोजे आत्मा को,
जहाँ मन ही बना राजा
ठगे क्यों न वहाँ माया !

माना थोड़ा सुख मिला है
बूंद जैसे ओस की हो,
कब टिका है भ्रम किसी का
तोड़ने ही काल आया !

बुधवार, अक्टूबर 12

एक बार दीवाली ऐसी


एक बार दीवाली ऐसी


बाहर दीप जलाये अनगिन
भीतर रही अमावस काली,
ज्योति पर्व मने कुछ ऐसा
मन अंतर छाये उजियाली !

तन का पोर-पोर उजला हो
फूट-फूट कर बहे ऊर्जा,
सुगठित, स्वच्छ, स्वस्थ देह में
दीप जले इक नव उमंग का !

प्राण में न कम्पन होता हो
सधा, सहज वह आये जाए,
श्वासों की सुंदर माला से
हृदय गुफा में देव रिझाएँ !

मन प्रांगण को भाव से लीपें
तृप्ति का अमृत जल छिडकें,
सत्य शिला पर शिव बैठे हों
सुंदर गीत रचें भक्ति के !

प्रज्ञा की इक बेल उगी हो
शील, समाधि के फल आयें,
भीतर इक उजास बिखरी हो
वाणी में भी जो छलकाए !

तब बिखरेगी हँसी फुलझड़ी
आनंद का अनार फूटेगा,
मुस्कानों के दीप जलेंगे
झर-झर कर आलोक बहेगा !

सिहर-सिहर जायेगी कालिमा
तमस रात्रि उजियारी होगी,
प्रेम सुरभि महका कर शोभित
ज्योति की फुलवारी होगी !

नयनों से फूटेंगी किरणें
अधरों से इक खनक नशीली,
मन से प्रेम प्रकाश बहेगा
वाणी से इक दुआ रसीली !

दीवाली का अर्थ यही है
मन का तमस विदा हो जाये,
तृष्णा कीट जलें अग्नि में
अंतर से अकुलाहट जाये !

पंचकोश पावन हों भीतर
नव द्वार फिर आलोकित हों,
दशम द्वार से परिचय पालें
उस पाहुन का स्वागत हो !

एक बार दीवाली ऐसी
जगमग जग अपना कर देगी,
सदा-सदा को मन मंदिर में
ज्योतिर्मय सपना भर देगी !  






   

सोमवार, अक्टूबर 10

क्या दमन ही आज की पहचान है


क्या दमन ही आज की पहचान है


मूल्य बदले ब्रांड में बिक रहा इंसान है
क्या दमन ही आज की पहचान है !

सर्वमान्य सच बनी है, मनुज की आधीनता
मुक्त होना दूर अब तो, सज रही है दासता

जल रहा जग, लोभियों का यह महाशमशान है
क्या दमन ही आज की पहचान है !

आधुनिक होना शरम को, ताक पर देना है रख
भागते रहना सुबह से शाम तक, फिर बेसबब

क्रूर हिंसा, वासना को पोषणा अब शान है
क्या दमन ही आज की पहचान है !

मौन हैं जिनके सहारे, सौंप डालीं कश्तियाँ
सिर झुकाए झेलतीं हैं, दर्द सारी बस्तियां

तोड़ता दम लोक का हर आखिरी निशान है
क्या दमन ही आज की पहचान है !

तोड़ डाले हौसले व हक सभी प्रतिरोध के
रौंधकर सपने, किये हैं मूक स्वर आक्रोश के

एक अनदेखी दिशा से बढ़ रहा तूफान है  
क्या दमन ही आज की पहचान है !

शनिवार, अक्टूबर 8

मैं


मैं

मृत्यु पाश में पड़ा
एक देह छोड़
अभी सम्भल ही रहा था...
कि गहन अंधकार में बोया गया
नयी देह धरा में
शापित था रहने को
उसी कन्दरा में
बंद कोटर में हो जाये ज्यों पखेरू
कैद पिंजर में हो जाये कोई पशु
एक युग के समान था
वह नौ महीनों का समय...

...और फिर आया.. मुक्ति का क्षण..
अपार पीड़ा के बाद
हुआ प्रकाश का दर्शन
मुंद-मुंद जाती थीं आँखें
और तब पेट में पहली बार
उठी वह मरोड़..
मांग हुई भोजन की
कोमल स्पर्श, ऊष्मा और गर्म पेय
पाकर तृप्त हुआ तन
और पड़ा मन पर एक नया संस्कार
रख दी गयी थी नींव उसी क्षण..
एक और जन्म की..
स्मृतियाँ पूर्व की
होने लगीं गड्ड मड्ड
पहचान में आने लगे नए चेहरे
बाल... किशोर.. युवा होते होते
मन ने छोड़ दिया आश्रय मेरा
जैसे छोड़ जाते हैं घरौंदा, पक्षी शावक
हो गया कैद अपने ही कारावास में
जिसकी दीवारें थीं
ऊँची और ऊँची होती हुई महत्वाकांक्षाएं..
कामनाओं.. और लालसाओं.. की छत के नीचे
विषय रूपी चारे को चुग कर
फंसता गया जाल में वह एक नादान पंछी की नाईं
जैसे किसी निर्जन द्वीप पर अकेला फेंक
दिया गया हो
कैद था मन अपने ही भीतर
और यहाँ बात कुछ महीनों की नहीं थी...
जैसे वीणा के टूटे तार
व्यर्थ हैं, व्यर्थ है खाली गागर
व्यर्थ ही बुन रहा था
जाल सपनों के...
और एक दिन..
वह चुप था बेखबर अपने आप से
मैंने झाँका..
उसे खबर तक न हुई मेरे आने की
वरना झट धकेल दिया जाता
मैं उसके साम्राज्य से
मैंने पीछे से समेट लिया उसे
सकपकाया सा बोला, क्या करते हो ?
बुद्धि भी चकराई
उसे यह हरकत पसंद न आई
मैंने सुनी अनसुनी कर दी
क्योकि मन पिघल रहा था मेरे सान्निध्य में
कुछ देर ही चला यह खेल
फिर मैं लौट आया
लेकिन अब मुझे जब-तब सुनाई देती एक पुकार
मन की पुकार
जो पहली बार तृप्त हुआ था मुझसे मिलकर
तुम कौन हो ?
कौन हो तुम ?
कहाँ हो ?
फुसफुसाता हूँ मैं, सुनो
मैं तुम हूँ
मैं वही चेतना हूँ
जो विचार बन कर दौड़ रही है
श्वास बन कर जीवित है
मैं अनंत प्रेम, अनंत शांति और अनंत आनंद हूँ...
लेकिन मेरी आवाज नहीं सुन पाता मन...
कोई सुख बिना कीमत चुकाए नहीं मिलता
प्रतिष्ठा बढ़ाने को बोले गए झूठ
किये गए फरेब
कर्मों के जाल में कैद हुआ
व्यर्थ के मोह जाल में फंसा
असूया के पंक में धंसा
सुख पाने की आकांक्षा में
बोता गया दुःख के बीज...
मन द्वन्द्वों का दूसरा नाम है..
कभी कभी थक कर पुकार लेता है मुझे
और पश्चाताप कर हो जाता है नया
पुनः एक नया खेल खेलने के लिये...
मैं प्रतीक्षा रत हूँ
कब थकेगा वह
कब लौटेगा मुझ तक
कब ..?











शुक्रवार, अक्टूबर 7

कोई है


कोई है

सुनो ! कोई है
जो प्रतिपल तुम्हारे साथ है
तुम्हें दुलराता हुआ
सहलाता हुआ
आश्वस्त करता हुआ !

कोई है
जो छा जाना चाहता है
तुम्हारी पलकों में प्यार बनकर
तुम्हारे अधरों पर मुस्कान बनकर
तुम्हारे अंतर में सुगंध बनकर फूटना चाहता है ! 

कोई है
थमो, दो पल तो रुको
उसे अपना मीत बनाओ
खिलखिलाते झरनों की हँसी बनकर जो घुमड़ रहा है
तुम्हारे भीतर उजागर होने दो उसे ! 

कोई है
जो थामता है तुम्हारा हाथ हर क्षण
वह अपने आप से भी नितांत अपना
बचाता है अंधेरों से ज्योति बन के समाया है तुम्हारे भीतर
उसे पहचानो
सुनो ! कोई है

बुधवार, अक्टूबर 5

सूरज ऐसा पथिक अनूठा


सूरज ऐसा पथिक अनूठा

रोज अँधेरे से लड़ता है
रोज गगन में वह बढ़ता है,
सूरज ऐसा पथिक अनूठा
नित नूतन गाथा गढ़ता है !

नित्य नए संकट जो आते
घनघोर घटाटोप बन छाते,  
चीर कालिमा को अम्बर में
घोड़े सूरज के हैं जाते !

न कबीर हम न ही गाँधी
हमें कंपा जाती है आंधी,
नहीं जला सकते घर अपना
नहीं भुला सकते निज सपना !

जीवन के सब रंग हैं प्यारे
भ्रम तोडना नहीं हमारे,
रब से हम सुख ही चाहते
बना रहे सब यही मांगते !

न द्वेष रहे न रोष जगे
भीतर इक ऐसा होश जगे,
सूरज सा जलना सीख लिया
जिसने, वह हर पल ही उमगे !

मंगलवार, अक्टूबर 4

दुलियाजान में दुर्गापूजा



माँ तेरे रूप अनेक

जगज्जननी ! हे मूल प्रकृति !
ज्योतिस्वरूपा सनातनी,
जगदम्बा, माँ सरस्वती
लक्ष्मी, गंगा, पार्वती !

दुर्गा देवी सदा सहाय
जीवन में बाधा जब आए,
भद्र काली करे कल्याण
माँ अम्बिका स्नेह लुटाए !

अन्नपूर्णा भरे भंडारे
सर्वमंगला मंगल लाए,  
चण्डिका परम शक्ति
भैरवी भय हरले जाय ! 

आनंद दायिनी ललिता देवी
जीवन दात्री है भवानी,
मुकाम्बिका माँ त्रिपुर सुन्दरी
कुमुदा, कुंडलिनी, रुद्राणी !

सोमवार, अक्टूबर 3

स्वर्ग धरा पे लाए कौन


स्वर्ग धरा पे लाए कौन

अवसर नहीं चूकता कोई
नर्क गढ़े चले जाता है,
नर्क का ही अभ्यास हो चला
स्वर्ग धरा पे लाए कौन ?

शक होता है प्यार पे सबको
नफरत को जपते माला से,
अंधकार में रहना भाता
ज्योति यहाँ जलाये कौन ?

डर कायम है भीतर-भीतर
ऊपर चस्पां है मुस्कान,
चुनता है मन असंतोष ही
मधुर गान फिर गाए कौन ?

जिसने यह सच जान लिए हैं
वही बनेगा भागीरथ अब,
धरती पर सुर सरि बह निकले
सहज प्रेम ही बरसेगा तब !