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बुधवार, जनवरी 3

कुसुमों में सुगंध के जैसा


कुसुमों में सुगंध के जैसा

राग नया हो ताल नयी हो 
कदमों में झंकार नयी हो, 
रुनझुन रिमझिम भी पायल की 
उर में  करुण पुकार नयी हो !

अभी जहाँ विश्राम मिला है  
बसे हैं उससे आगे राम, 
क्षितिजों तक उड़ान भर ले जो 
 हृदय को पंख लगें अभिराम !

अतल मौन से जो उपजा हो 
सृजित वही हो मधुर संवाद,
उथले-उथले घाट नहीं अब 
गहराई में पहुंचे याद !

नया ढंग अंदाज नया हो 
खुल जाएँ जो बंद हैं  द्वार ,
नये वर्ष में गीत नया हो
बरसे बरबस सरस उपहार !

अंजुरी भर-भर बहुत पी लिया  
अमृत घट वैसा का वैसा,
अब अंतर में भरना होगा 
कुसुमों में सुगंध के जैसा !

रविवार, जून 9

गंध और सुगंध




गंध और सुगंध

जब मन द्वेष के धुंए से भर जाये
या भीतर कोई चाह जगे
अपने को खोजने की थोड़ी कोशिश करें
यह गंध कहाँ से आ रही है ?
दबी होगी कहीं कोई दुर्वासना
किसी प्रतिशोध की भावना
कोई अपमान जो चुभा हो गहरे कभी
सारी गंधें वहीं जन्म लेती हैं
जब नहीं रहेगी कोई आकांक्षा
हार और जीत की कामना
मिट जाएगी हर उलझन
खिल जायेंगे ध्यान के सुमन
और तब नहीं पूछना होगा
 यह सुगंध कहाँ से आ रही है ?

शनिवार, अक्टूबर 25

पंख लगें उर की सुगंध को

पंख लगें उर की सुगंध को



दिल में किसी शिखर को धरना
सरक-सरक कर बहुत जी लिए,
पंख लगें उर की सुगंध को
गरल बंध के बहुत पी लिए !

जाना है उस दूर डगर पर
जहाँ खिले हैं कमल हजारों,
पार खड़ा कोई लखता है
एक बार मन उसे पुकारो !

जहाँ गीत हैं वहीं छिपा वह
शब्द, नि:शब्द युग्म के भीतर,
भीतर रस सरिता न बहती
यदि छंद बद्ध न होता अंतर !

सागर सा वह मीन बनें हम
संग धार के बहते जाएँ,
झरने फूटें सुर के जिस पल
 झरे वही, लय में ले जाये !

रिक्त रहा है जो फूलों से
विटप नहीं वह बन कर रहना,
गंध सुलगती जो अंतर में
वह भी चाहे अविरत बहना !

निशदिन जो बंधन में व्याकुल
मुक्त उड़े वह नील गगन में,
प्रीत झरे जैसे झरते हैं
हरसिंगार प्रभात वृक्ष से  !




  

शुक्रवार, अक्टूबर 7

कोई है


कोई है

सुनो ! कोई है
जो प्रतिपल तुम्हारे साथ है
तुम्हें दुलराता हुआ
सहलाता हुआ
आश्वस्त करता हुआ !

कोई है
जो छा जाना चाहता है
तुम्हारी पलकों में प्यार बनकर
तुम्हारे अधरों पर मुस्कान बनकर
तुम्हारे अंतर में सुगंध बनकर फूटना चाहता है ! 

कोई है
थमो, दो पल तो रुको
उसे अपना मीत बनाओ
खिलखिलाते झरनों की हँसी बनकर जो घुमड़ रहा है
तुम्हारे भीतर उजागर होने दो उसे ! 

कोई है
जो थामता है तुम्हारा हाथ हर क्षण
वह अपने आप से भी नितांत अपना
बचाता है अंधेरों से ज्योति बन के समाया है तुम्हारे भीतर
उसे पहचानो
सुनो ! कोई है