शुक्रवार, दिसंबर 9

सारा जग अपना लगता है


सारा जग अपना लगता है

लगन लगा दे सबको अपनी
प्रियतम निज रंग में बोड़ दे,
भीतर जो भी टूट गया था
सहज प्रेम से उसे जोड़ दे !

विषम कलुष कटुता भर ली थी
परम नाम की धारा धो दे,
जो अभाव भी भीतर काटे
अनुपम धन भर उसको खो दे !

अस्तित्त्व की कृपा हो अनुपम
संतुष्टि से भरे अंतर मन,
अथक हुए पग बढ़ते जायें
सोने सा चमके यह जीवन !

सुख आये या दुःख, प्रसाद हो
तुमसे ही आता है, प्रिय हो,
तू अपने ही निकट ला रहा
जो भी तुझको भाए, प्रिय हो !

छोड़ दिये सभी राग-विराग
सारा जग अपना लगता है,
भीतर से चट्टान उठ गयी
एक खजाना भी दिखता है !

जहाँ प्रेम है वहाँ परम है 
कैसा भेद कैसा अलगाव,
पुलक जग रही जो तृण-तृण में
है चहुँ ओर तेरा ही भाव !

प्रेमिल पाठ पढ़ाते हो तुम
सारे जग को मीत बनाते,
सबके भीतर तुम ही बैठे
कर बहाने पास हो लाते !
     

गुरुवार, दिसंबर 8

मृत्यु शैय्या पर पड़ा व्यक्ति


मृत्यु शैय्या पर पड़ा व्यक्ति

न जाने कितने जन्मों में
कितनी देहें धरी होंगी,
कितने सम्मान गहे होंगे
कितने अपमान सहे होंगे
कितनी बार रोये गिड़गिड़ाए होंगे
सब व्यर्थ गया....
हर रुदन ही नहीं, हर हास्य भी
जो उठा होगा मनचाहा कुछ पा लेने पर
कैसे-कैसे स्वप्न न देखे होंगे
सोई ही नहीं, जगती आँखों से भी
सब बेमानी हो गए.... !

मृत्यु शैय्या पर पड़े व्यक्ति के लिये
हर पीड़ा हर अपमान
क्या इस सत्य से पीठ फेर लेना नहीं था
अब चंद श्वासें ही शेष हैं तो
आ रहा है नजर चेहरा वृद्धा पत्नी का...
कितना कुम्हलाया सा...
जैसे बरसों से नजर ही नहीं गयी हो उस ओर
उस चेहरे की झुर्रियों में
कितनी ही तो दी हैं उसी ने तोहफे में...
कितनी पीड़ा कितने उपालम्भ
व्यर्थ ही दिये वाणी के दंश
व्यर्थ ही किये वाकयुद्ध... मौन युद्ध... !

और ये बच्चे... जताया बड़प्पन
जिनकी आँखें भरी हैं अश्रुओं से
कितना रुलाया इन्हें अपने मान की खातिर
भूल गया वह सारे दंश
जो जगत ने भी दिये होंगे उसे
पर वे सारे प्रतिदान थे... उसने माँगे थे...
यूँ ही नहीं मिले थे
कमाए थे उसने बड़े यत्न से
बड़े आयोजन किये थे इसके लिये
क्योंकि सारा जीवन तो बस
जीया था अपने लिए
उसकी दुनिया घूमती थी बस अपने इर्द गिर्द
वही धुरी था इस विश्व की
वही केन्द्र था जिसके चारों ओर घूम रहा था ब्रह्मांड
और आज छूट रहा था सारा साम्राज्य !

लेकिन अचानक पाया उसने, उतर गया है बोझ
अब वह नहीं है... केवल पूर्ण शांति है
मौत इतनी सुंदर है
उसे यकीन ही नहीं हुआ
जैसे ही आभास हुआ व्यर्थता का
अहंकार जैसे खो गया
और शेष रह गया अस्तित्त्व
नितांत मुक्त, शांत, आनंद मय अस्तित्त्व
जिसे न कुछ पाना है, न कुछ जानना है
न कुछ देना है, न कुछ लेना है
जो है, बस है और सहज है
उसी सहजता में कुछ घटता है
जो घटता है उसका अभिमान नहीं
जो नहीं घटता उसकी चाह नहीं
वह पूर्ण है अपने आप में पूर्ण...!





मंगलवार, दिसंबर 6

जैसे कोई द्वार खुला हो



जैसे कोई द्वार खुला हो

भीतर-बाहर, सभी दिशा में
बरस रहा वह झर-झर, झर-झर,
पुलक उठाता, होश जगाता
भरता अनुपम जोश निरंतर !

जैसे कोई द्वार खुला हो
आज अमी की वर्षा होती,
आमन्त्रण दे मुक्त गगन भी
अंतर सहज ही रहे भिगोती !

रंचमात्र भी भेद नहीं है
जल से जल ज्यों मिल जाता है,
फूट गयीं दीवारें घट की
दौड़ा सागर भर जाता है !

मेघपुंज बन कभी उड़े मन
कभी हवा सँग नृत्य कर रहा,
पीपल की ऊँची फुनगी पर
खग के सुर में सुर भर रहा !

कभी दिशाएं हुईं सुवासित
सौरभ सहज चहूँ ओर बिखरता,
धूप रेशमी उतरी नभ से
जल कण से तृण कोर निखरता !

तन का पोर पोर कम्पित है
गुंजन इस ब्रह्मांड की सुनता,
उर बौराया चकित हुआ सा
देख-देख सब सपने बुनता !

  




रविवार, दिसंबर 4

तेरे सिवा कोई और कहाँ है


तेरे सिवा कोई और कहाँ है


बन जाऊँ मैं तेरी बांसुरी
तेरे गीतों को जन्माऊँ,
तू ही झलक-झलक जाये फिर
मन दर्पण को यूँ चमकाऊँ !

प्रस्तर में ज्यों छिपी मूर्ति
शिल्पी की आँखें लख लेतीं,
इस महा अस्तित्त्व में कान्हा
निरख-निरख शुभ दर्शन पाऊँ !

कण-कण में जो गूंज रहा सुर
उर में ही झंकृत कर पाऊँ,
हवा, धूप, आकाश, अनल सा
निकट सदा पा तुझको ध्याऊँ ! 

‘मैं’ ही जो ‘मैं’ जो भीतर रहता
ढक पुष्पों से उसे चढाऊँ,
ज्यों जल भरता खाली घट में
अंतर्मन में तुझे समाऊँ !

तेरे सिवा कोई और कहाँ है
माया कह कर किसे बुलाऊँ,
तू ही भीतर तू ही बाहर
लख-लख यह लीला मुस्काऊँ !

एक तत्व से हुआ पसारा
एक उसी को सदा रिझाऊं,
‘तू’ ही ‘मैं’ बन खोज रहा है
अद्भुत भेद समझ न पाऊं !

शनिवार, दिसंबर 3

मृणाल ज्योति के बच्चों को समर्पित


 दुलियाजान असम में स्थित मृणाल ज्योति संस्था, विकलांगों के पुनर्वास के लिये पिछले कई वर्षों से कार्य कर रही है. आज यहाँ भी विश्व विकलांग दिवस मनाया जा रहा है, यह कविता उसी कार्यक्रम में पढ़ी जायेगी.


विश्व विकलांग दिवस

वे बाधाग्रस्त हैं
अपूर्ण हैं
किन्तु केवल देह के तल पर,
मन और आत्मा से वे भी पूर्ण हैं
हम आप ही की तरह..

कभी वे बोल नहीं सके
सुन पाने में असमर्थ रहे
कभी नाकाबिल चल पाने में
मन की मन में रखने को विवश रहे  !

झूठ और हिंसा के बलबूते पर
जीती हुई दुनिया से हैं अछूते
जहाँ जन्मे वहाँ भी
कभी-कभी बोझ हैं माने जाते
कहलाकर मंदबुद्धि उपहास के पात्र हैं बनते !

वे ऐसे हुए  
ताकि हम कीमत जान सकें
जीवन के बहुमूल्य उपहारों की
ताकि हम पा सकें सेवा का अवसर
भर सकें अपने भीतर का छोटापन
जो सम्भाल सके अपूर्णता को
भर सकें अपने भीतर वह ताकत !

वे बाधाग्रस्त हैं लेकिन
अयोग्य या असहाय नहीं
आत्मशक्ति भरे भीतर वे तैयार हैं
करने सामना जीवन का

वे मुस्काते हैं, सहज हैं, इतने निर्दोष
कि वे शिकायत भी नहीं करते किसी से
ये तो हम ही हैं जो सकुचाते हैं उन्हें देख
वे अपनेआप में ऐसी कृति हैं परमात्मा की
जिन्हें चाहिए हमारी साज-सम्भार !

और हम जो भी करेंगे उनके लिये
अंततः होगा वह हमारे ही लिये
जाग उठेगी हमारे भीतर सोयी चेतना
उन आँखों में दिखेगी उसी की ज्योति
उन अधरों पर उसी की हँसी !

वे हमारी दया के नहीं, प्रेम के अधिकारी है
वे मासूम हैं, छलकपट की दुनिया से दूर
अपनी दुनिया में मस्त
चाहकर भी हम जिसमें प्रवेश नहीं पा सकते
पर इतना तो कर सकते हैं
कि उनके पथ के दो चार कंटक ही बीन दें
हमारे सहयोग से उनका जीवन
थोड़ा सा सरल हो जाये
विश्व विकलांग दिवस मनाना भी तो
सही अर्थों में सफल हो जाये !




  

गुरुवार, दिसंबर 1

नर्तक एक अनोखा देखा


नर्तक एक अनोखा देखा 



मुंदी पलक में स्वप्न थिरकते, उपवन-उपवन पुष्प नाचते !
शिशु कोख में माँ में आशा, बीज धरा में उर अभिलाषा,

नित्य नाचते पल्लव, किसलय, सँग नाचते मृण्मय, चिन्मय ! 
श्वासें नाचें रक्त नाचता, शंकर नाचें, भक्त नाचता,

हवा नाचती, स्थाणु नाचें, अणु-अणु, परमाणु नाचें ! 
नृत्य समाया लहर-लहर में, दृष्टि नाचती डगर-डगर में,

शब्द नाचते कवि कलम में, भाव नाचते पाठक दिल में !
नृत्यांगना के चरण थिरकते, छेनी नाचे प्रस्तर तन पे,

वीणा की स्वरलहरी नाचे, मीरा के पग घुंघरू नाचे ! 
कृष्ण नाचते राधा नाचे, वन-जंगल में मोर नाचते,

नृत्य कर रही है हर रेखा, नर्तक एक अनोखा देखा !

धूप नाचती नाचे छाया वृक्ष नाचते नाचे काया,

बुधवार, नवंबर 30

नन्हा रजकण सृष्टि समेटे


नन्हा रजकण सृष्टि समेटे


बाशिंदा जो जिस दुनिया का
गीत वहीं के ही गायेगा,
अम्बर में उड़ने वाला खग
गह्वर में क्या रह पायेगा !

उस अनंत स्रष्टा का वैभव
देख-देख झुक जाता अंतर,
जाने कितने रूप धरे हैं
तृप्त नहीं होता रच-रच कर !

स्वयं तो शांत सदा एकरस
कोटि-कोटि ब्रह्मांड रचाए,
भीतर भर दी चाह अनोखी
देख-देख भी उर न अघाये !

रंगों की ऐसी बरसातें
खुशबू के फव्वारे छोड़े,
रसमय उस प्रियतम ने देखो
छेड़ दिये हैं राग व तोड़े !

कुछ भी यहाँ व्यर्थ न दीखे
नन्हा रजकण सृष्टि समेटे,
तृण का इक लघु पादप देखो
सुख अपनी गरिमा में लपेटे ! 

सोमवार, नवंबर 28

रब भीतर तू बिछड़ा था कब


रब भीतर, जग बिछड़ा था कब


तोड़ दीं बेडियाँ अब तो सब
अब ना जग चाहिए, न ही रब,
तज कर ही तलाश को जाना
रब भीतर, जग बिछड़ा था कब !

चाह मात्र ही दीवार थी
नाहक जिंदगी दुश्वार थी,
मुक्त पखेरू की मानिंद था
चाहत ही लटकी कटार थी !

नभ अपना अब जग सब अपना
नहीं अधूरा कोई सपना,
कदम-कदम पर बिखरी मंजिल
नहीं नींद में उनको जपना !

जिसे भेद का रोग हो लगा
कोई उजास न दिल में जगा,
वही मिटाये बस दूरी को
दिल तो सदा खुशबू में पगा !

दीप से ज्योति की है दूरी?
माटी में है गंध जरूरी,
दिल में नहीं, कहाँ होगी फिर
परिक्रमा मंदिर की पूरी !


शुक्रवार, नवंबर 25

तेरे भीतर मेरे भीतर


तेरे भीतर मेरे भीतर

स्वर्ण कलश छिपा है सुंदर
तेरे भीतर मेरे भीतर,
गहरा-गहरा खोदें मिलकर
तेरे भीतर मेरे भीतर !

दिन भर इधर-उधर हम खटते
नींद में उसी शरण में जाते,
शक्तिपुंज वह सुख का सागर
फिर ताजे हो वापस आते !

होश जगे यदि उसको पाएँ
यह प्यास भी वही जगाए,
सुना बहुत है उसके बारे
वह ही अपनी लगन लगाये !

इस मन में हैं छिद्र हजारों
झोली भर-भर वह देता है,
श्वासें जो भीतर चलती हैं
उससे हैं यह दिल कहता है !

अग्नि के इस महापुन्ज में
देवशक्तियां छुपी हैं कण-कण,
बर्फीली चट्टानों में भी
मिट्टी के कण-कण में जीवन !

जो भी कलुष कटुता भर ली थी
उसके नाम की धारा धो दे,
जो अभाव भी भीतर काटे
अनुपम धन भर उसको खो दें !