अद्वैत
दो के पार जहाँ है एका
एक ही सत्ता व्याप रही है,
द्वंद्वों से जब मुक्त हुआ मन
एक उसी की छाप रही है !
भिन्न-भिन्न मत भिन्न विचार
बुद्धि काँट छाँट में माहिर,
लेकिन आये एक स्रोत से
एक आत्मा में सब जाहिर !
जाने अनजाने ही चाहे
उसी ओर सब दौड़ रहे हैं,
बिखरा बिखरा सा है जो मन
लगन लगा के जोड़ रहे हैं !
एक हुआ जो तृप्त हो गया
अटका जो दो में है प्यासा,
पूर्ण हुआ जब तजी कामना
आशा सँग तो सखी निराशा !
अनिता निहालानी
८ जनवरी २०११
बहुत गहराई है! धन्यवाद! सुन्दर रचना के लिए!
जवाब देंहटाएं.बहुत खूब....गहरी कशमकश . खूबसूरत अभिव्यक्ति. शुभकामना
जवाब देंहटाएंयह रचना अपना प्रभाव छोड़ गयी....आभार
जवाब देंहटाएंbahut achcha likhin hain aap.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंजाने अनजाने ही चाहे उसी ओर सब दौड़ रहे हैं, बिखरा बिखरा सा है जो मन लगन लगा के जोड़ रहे हैं !
जवाब देंहटाएंएक हुआ जो तृप्त हो गया अटका जो दो में है प्यासा
बहुत गहन कथन है -
सुंदर अभिव्यक्ति .
शुभकामनाएं
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी बात छिपी है इस रचना में....मन तो सदैव द्वैत में ही रहता है ये या वो....इससे पार हो जाना ही सच में उस पर उतर जाना है ....सबसे बड़ा द्वन्द तो न के द्वत से ही है .....मेरा सलाम है आपको इस रचना पर....