जब से तुमसा खुद को जाना !
धरा वही है, वही गगन है
वही सूर्य, चन्द्रमा, तारे
किन्तु हुई है मधुमय, रसमय
मिले हैं जब से नयन हमारे !
यूँ ही नहीं हूँ मनु का वंशज
हुआ सार्थक जग में आना,
अर्थ मिला है इक-इक क्षण को
जब से तुमसा खुद को जाना !
सृजन ऊर्जा, प्राण ऊर्जा
है अनंत, असीम हो बांटे,
मुक्तिबोध प्रबल है इतना
सम है पथ पर पुष्प व कांटे !
लक्ष्य एक ही उस अनंत का
कण कण में जो रहा समोए,
निर्मल अंतर घट घट में जा
प्रेम सिंधु में सहज डुबोए !
अनिता निहालानी
२८ जनवरी २०११
sundartam bhavon ko aapne komal shabdon ke madhayam se prastut kiya hai .bahut achchhi bhavabhivyakti .
जवाब देंहटाएंjab se tumsa khud ko jana.......:)
जवाब देंहटाएंek bahut pyari rachna...!!
यूँ ही नहीं हूँ मनु का वंशज
जवाब देंहटाएंहुआ सार्थक जग में आना,
अर्थ मिला है इक-इक क्षण को
जब से तुमसा खुद को जाना !
बहुत अच्छी रचना है आपकी. बधाई
यूँ ही नहीं हूँ मनु का वंशजहुआ सार्थक जग में आना,अर्थ मिला है इक-इक क्षण कोजब से तुमसा खुद को जाना !---अपने होने को सार्थक करती हुईं बहुत ही सटीक लगीं ये पंक्तियाँ.
जवाब देंहटाएंBeautiful as always.
जवाब देंहटाएंIt is pleasure reading your poems.
धरा वही है, वही गगन है
जवाब देंहटाएंवही सूर्य, चन्द्रमा, तारे
किन्तु हुई है मधुमय, रसमय
मिले हैं जब से नयन हमारे !
बहुत सुंदर रचना -
एकात्मकता का बोध कराती हुई -
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ..ईश्वर के निकट पहुँचने का मार्ग बताती हुई
जवाब देंहटाएंअनीता जी,
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर लगी ये पोस्ट......प्रेम की गहनतम अनुभूति समेटे इस पोस्ट में ये पंक्तियाँ सबसे ज़्यादा पसंद आयीं -
धरा वही है, वही गगन है
वही सूर्य, चन्द्रमा, तारे
किन्तु हुई है मधुमय, रसमय
मिले हैं जब से नयन हमारे !
लक्ष्य एक ही उस अनंत का
जवाब देंहटाएंकण कण में जो रहा समोए,
निर्मल अंतर घट घट में जा
प्रेम सिंधु में सहज डुबोए !
गहन दर्शन की बहुत प्रवाहमयी और प्रभावपूर्ण प्रस्तुति..