सोमवार, अगस्त 1

वह आज भी प्रतीक्षा रत है..


वह आज भी प्रतीक्षा रत है..

लुकाछिपी खेलने वाले बच्चों में
एक जन छिप गया दूर सबकी नजरों से
ऐसी जगह, जहाँ ढूँढ न सका कोई भी उसे
कुछ देर वे ढूँढते रहे थे
फिर ढलती शाम देख
जाने लगे एक-एक कर
भूल ही गए अपने उस सखा को,
जो छिपा था दूर बड़े पाषाण के पीछे
गुल्म-लताएँ उग आयी थीं जिसके चहुँ ओर
मन ही मन था वह प्रतीक्षारत अपने साथियों का
जिनमें से एक व्यस्त था
पथ पर आते-जाते वाहनों को निहारने में
दूसरा खिलौनेवाले की बंसी की धुन में खो गया था
एक स्वादिष्ट व्यंजन की तलाश में खिंचा चला गया
खोमचेवालों की तरफ
और किसी को उसकी माँ सहलाते हुए ले गयी
कोई मित्र से झगड़ने में हो गया मशगूल
यानि की हर कोई गया भूल
 उस साथी को
जो शाम ढलने तक करता रहा था प्रतीक्षा
और शायद हर रोज करता रहेगा....
.......
.......
क्यों न हम ही उसे ढूँढें !  

10 टिप्‍पणियां:

  1. मर्मस्पर्शी लेखन ...मन की गहराईयों तक पंहुचता है .....!!
    बहुर सुंदर रचना अनीता जी ...

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  2. सुभानाल्लाह........कितने ज़बरदस्त प्रतीकों में कितनी गहराई है.......क्यों न हम ही उसे ढूँढें.........वाह.....शानदार |

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  3. हम लोग अभी भी ढूंढ रहें है उस साथी को. बस खेल और खेल का नाम्भूल गए हैं. नए-नए खेलों, खेल के नए नियमों में फंस गए हैं. जब तक हम मूल खेल तक नहीं पहुचेंगे, चाहे जितने मच जीत लें. ट्राफिया बटोर ले वह ख़ुशी नहीं मिलेगी जिसकी तलाश है. यह कहानी बहू आयामी है और अत्यंत सारगर्भि भी. ३-४ बार पढ़ गया, हरबार एक नयारूप , नया अर्थ मिलता है इसमें....आभार इस काव्य-कथा के लिए, हो हर ले व्यथा उसके लिए....तलाश कट कर ही रहे हैं पता नहीं कब से ..और करेंगे ..पता नहीं कब तक..?

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  4. एक अत्यंत ही भवप्रद रचना। मुझे इसे पढ़कर पंत के ‘दोलड़के’ की याद आ गई।

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  5. जितना लिखा है उससे कहीं ज्यादा समझने और सोचने का विषय है. अभिनन्दन.

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  6. बेहतरीन।
    ---------
    कल 03/08/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  7. सुन्दरम ,मनोहरं ,आभार .कृपया यहाँ ही पधारें -
    http://veerubhai1947.blogspot.com/

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  8. उसे ढूढें बिना चैन मिलेगा भी नही.सभी को तलाश तो उसी की तो है.

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