रब भीतर, जग बिछड़ा था कब
तोड़ दीं बेडियाँ अब तो सब
अब ना जग चाहिए, न ही रब,
तज कर ही तलाश को जाना
रब भीतर, जग बिछड़ा था कब !
चाह मात्र ही दीवार थी
नाहक जिंदगी दुश्वार थी,
मुक्त पखेरू की मानिंद था
चाहत ही लटकी कटार थी !
नभ अपना अब जग सब अपना
नहीं अधूरा कोई सपना,
कदम-कदम पर बिखरी मंजिल
नहीं नींद में उनको जपना !
जिसे भेद का रोग हो लगा
कोई उजास न दिल में जगा,
वही मिटाये बस दूरी को
दिल तो सदा खुशबू में पगा !
दीप से ज्योति की है दूरी?
माटी में है गंध जरूरी,
दिल में नहीं, कहाँ होगी फिर
परिक्रमा मंदिर की पूरी !
हमेशा की तरह लाजवाब|
जवाब देंहटाएंबेहतरीन भावाभिवय्क्ति.....
जवाब देंहटाएंहमारा चलना घूमना परिक्रमा ही है अगर वो हृदय में विद्यमान हो!
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता!
बहुत ही सुन्दर
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