चलो, अब घर चलें
बहुत घूमे बहुत भटके
कहाँ-कहाँ नहीं अटके,
बहुत रचाए खेल-तमाशे
बहुत कमाए तोले माशे !
अब तो यहाँ से टलें
चलो अब घर चलें !
आये थे चार दिन को
यहीं धूनी रमाई,
यहीं के हो रहे हैं
पास पूंजी गंवाई !
यादें अब उसकी खलें
चलो अब घर चलें !
कुछ नहीं पास तो क्या
वहाँ भरपूर है आकर
पिता का प्यार माँ का नेह
बुलाते प्रीत के आखर
आये तो थे अच्छे भले
चलो अब घर चलें !
आये थे चार दिन को
जवाब देंहटाएंयहीं धूनी रमाई,
यहीं के हो रहे हैं
पास पूंजी गंवाई !
बढ़िया प्रस्तुति !
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कितना भी धूनी रमाये पर घर तो जाना ही है..
जवाब देंहटाएंयही तो सुकून का ठिकाना है..
बहुत बढ़िया आंटी
जवाब देंहटाएंसादर
बढ़िया प्रस्तुति आदरणीया-
जवाब देंहटाएंआभार आपका-
कल 21/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
घर तो घर ही होता है. सतत चुम्बकीय आकर्षण की तरह हमेशा खींचता रहता है. सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंसुन्दर, बेहतरीन प्रस्तुती
जवाब देंहटाएंआंधी
आप सभी सुधीजनों का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सच .... एक दिन लौट के घर ही आना होता है |
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंघर लौटते वक्त प्यार की गठरी का एहसास हो तो क्या कहने! बाकी तो रोते-रीते मन से रूख़सत होते हैं यहाँ से।