नई नकोर कविता
बरसती नभ से महीन झींसी
छू जाती पल्लवों को आहिस्ता से
ढके जिसे बादलों की ओढ़नी
झरती जा रही फुहार
उस अमल अम्बर से !
छप छप छपाक खेल रहा पाखी जल में
लहराती हवा में लिली और
रजनीगन्धा की शाखें
गुलाब निहारता है जग को भर-भर आँखें
हरी घास पर रंगोली बनाती
गुलमोहर की पंखुरियां
भीगे-भीगे से इस मौसम में
खो जाता मन
संग अपने दूर बहा
ले जाती ज्यों पुरवैया...
नई नकोर कोमल कविता ..
जवाब देंहटाएंसुन्दर!
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन
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