चलना है बहुत पर पहुँचना कहीं
नहीं
किताबे-जिंदगी में आखिरी
पन्ना ही नहीं
घर जिसे माना निकला पड़ाव भर
सितारों से आगे भी है एक
नगर
दिया हाथ में ले चलना है
सफर पर
साथ नहीं कोई न कोई फिकर कर
जुबां नहीं खोलता वह चुप ही
रहता है
रौशनी का दरिया खामोश बहता
है
बिन बदली बरखा बिन बाती
दीपक जलता
कहा न जाये वर्तन कभी न वह
सूरज ढलता
बहुत सुंदर, भावपूर्ण और प्रवाहमयी रचना
जवाब देंहटाएंघर जिसे माना निकला पड़ाव भर
जवाब देंहटाएंसितारों से आगे भी है एक नगर
बहुत उम्दा.......वाह्ह्ह्ह्ह्ह
वाह! आनंद दायक।
जवाब देंहटाएंहिमकर जी, जितेन्द्र जी, देवेन्द्र जी, स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंbahut sunder rachana .
जवाब देंहटाएंbahut accha lekh
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मधुलिका जी
जवाब देंहटाएंचित्र के साथ कविता बहुत अच्छी लगी...
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