सपनीला मन
शब्दों का एक जखीरा
बहा चला आता है
जाने कहाँ से...
शब्द जो ठोस नहीं हैं
कितने वायवीय पर कितने
शक्तिशाली
देह दिखती है
मन नहीं दिखता
विचार जो नहीं दिखता आज
कल देह धरेगा
सूक्ष्म से स्थूल की यात्रा
चलती रहेगी...
देह के बिना भी हम हैं
शब्द क्या ये नहीं बताते
शब्द.. जो एक ऊर्जा हैं
जिन्हें आकार हम देते हैं...
अव्यक्त को व्यक्त करते आये
हैं हम युगों से
अब वापस लौटना है
स्थूल से सूक्ष्म की ओर....
हम देह की तरह रहते हैं
और मन..
अनजाना ही बना रहता है जीवन भर
खुद की पहचान किये बिना
गुजर जाती है उमर
देह से जुड़ी है हर बात
सुबह से शाम तक
मन नींद में मुखर हो जाता
है
सपनों में घटता है आधा जीवन
जिसे सपना ही तो है.. कहकर
भुला देते हैं हम !
यों देखा जाय तो मनुष्य भी देह की अपेक्षा मानस से संचालित है ,चेतना का मूल भी वही .
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार प्रतिभा जी ! चेतना का मूल यदि मन है तो क्या उसे सदा एक रस नहीं होना चाहिए, उल्लास से भरा निर्विकल्प..निर्मल...पर मन तो पल में तोला पल में माशा होता रहता है..हमें मन के स्रोत का पता ही नहीं है अभी..अभी तो देह का सूक्ष्म भाग ही हमारे लिए मन है...
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
हटाएंwah wah!
जवाब देंहटाएंtoo good
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स्वागत व आभार डा.मेहता !
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