कुछ ऐसा है कि
आँखें बाहर देखती
हैं
मन संसार की
सुनता है
कान शब्दों में
डूबे हैं
और वह भीतर बैठा
है !
फिर इसमें कैसा
आश्चर्य ?
हम कभी उससे मिले
नहीं...
अजनबियों के साथ
ही जीवन बिताया
तभी संग रहकर
सबके.. सबने खुद को
नितांत अकेला ही
पाया !
इसको कभी उसको
अपना भी बनाया
पर अपना सा जहाँ
में.. एक ना आया
जिसकी तलाश है वह
तो कहीं और है
दूर है वहाँ
से..अपना जहाँ ठौर है !
फूलों को सराहा
निर्झरों को चाहा
कभी झलक मिली एक
पलकें भी मुंदीं
एक किरण रोशनी..
जाने क्या कर गयी
उस ने ही शुभ घड़ी
भेजा था पैगाम
सीता का राम वह
या राधा का श्याम !
बहुत खूब ... जो भी है जिसने भेजा पैगाम ... जब दिल ने उसे पाया तभी सवेरा ...
जवाब देंहटाएंमन में झांकना भी उसी से तो संभव है ... ऐसे कहाँ कोई भीतर देख पाता है अपने भी ...
सही कहा है आपने..वही बुलाता है, स्वागत व आभार !
हटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावों से सुसज्जित अनुपम रचना ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मीना जी !
हटाएंक्या बात है, बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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