गुरू प्राकट्य सूर्य समान
गुरु की गाथा कही न जाये
शब्दों में सामर्थ्य कहाँ है,
पावन ज्योति, विमल चांदनी
बिखरी उसके चरण जहाँ हैं !
गुरू प्राकट्य सूर्य समान
अंधकार अंतर का मिटाए,
मनहर चाँद पूर्णिमा का है
सौम्य भाव हृदय में जगाए !
सिर पर हाथ धरे जिसके वह
जन्मों का फल पल में पाता,
एक वचन भी अपना ले जो
जीने का सम्बल पा जाता !
महिमा उसकी अति अपार है
बिन पूछे ही उत्तर देता,
सारे प्रश्न कहीं खो जाते
अन्तर्यामी सद्गुरु होता !
दूर रहें या निकट गुरू के
काल-देश से है अतीत वह,
क्षण भर में ही मिलन घट गया
गूंज रहा जो पुण्य गीत वह !
पावन हिम शिखरों सा लगता
शक्ति अटल आनंद स्रोत है,
नाद गूंजता या कण-कण में
सदा प्रदीप्त अखंड ज्योत है !
वही शब्द है अर्थ भी वही
भाव जगाए दूसरा कौन,
अपनी महिमा खुद ही जाने
वाणी हो जाती स्वयं मौन !
निर्झर कल-कल बहता है ज्यों
गुरू से सहज झरे है प्रीत,
डाली से सुवास ज्यों फैले
उससे उगता मधुर संगीत !
धरती सम वह धारे भीतर
ज्ञान मोती प्रेम भंडारे,
बहे अनिल सा कोने-कोने
सारे जग को पल में तारे !
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (7 -7 -2020 ) को "गुरुवर का सम्मान"(चर्चा अंक 3755) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार !
हटाएंगुरू पूर्णिमा पर रची गई सुन्दर रचना।
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जवाब देंहटाएंगुरु की महिमा का बहुत ही सुंदर गुणगान ,सादर नमन अनीता जी
जवाब देंहटाएंगुरू प्राकट्य सूर्य समान
अंधकार अंतर का मिटाए,
मनहर चाँद पूर्णिमा का है
सौम्य भाव हृदय में जगाए !
बहुत सुंदर अनिता जी | गुरुदेव की महिमा कौन कह सकता है भला !बहुत अच्छा लिखा आपने |हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई |