जब जीवन का मन मर्म न जाने
करणीय को त्याग क्या
मन अक्सर व्यर्थ के स्वप्न नहीं देखता
कभी इस.. कभी उस.. सुख के पीछे भागता
जो बन सकती थी नौका को
लक्ष्य की ओर ले जाने वाली पवन
बदल तूफान में ऊर्जा वह गंवाता
आहार जो था
ऊर्जा वृद्धि के लिए
उसे मिटाने में ही लगा देता
देह जो बन सकती थी साधन
क्षतिग्रस्त साध्य उसे बना लेता
स्वस्थ रहे उपाय खोजता हजार
और चलते रहते
अस्वस्थ करने के सारे विहार
थम कर देखता भी नहीं
जो कृत्य किये थे सुख के लिए
दुःख के सामान एकत्र किये जाते वे
तैरना चाहता है संसार सागर में
निज हाथों से पैरों में पत्थर बाँध मोह के !
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएं