जरा पार की हद आंगन की
काल समेटे दुनिया अपनी
उससे पहले ही जगना है,
ताग बटोरे बांध एक में
जान ही लें जगत सपना है !
जब तक बचा रहा पंजे से
तब तक मूषक रहा कुतरता,
पड़ जाता ज्यों उसके फंदे
मार्जार बन काल झपटता !
ऐसा ही कुछ कोरोना है
दबे पाँव राहें तकता है,
जरा पार की हद आंगन की
नहीं रहम पल भर करता है !
धनवानों का धन रह जाता
रुतबा, पद कुछ काम न आता,
चपरासी से राष्ट्रपति यहा
एक तराजू तौला जाता !
मैंने आपकी कवताओं को पढ़ा बहुत आनंदमई कविताएं लिखी है आपने
जवाब देंहटाएंमैंने भी हाल ही में ब्लॉगर ज्वाइन किया है, आपसे निवेदन है कि आप मेरे ब्लॉग विजिट में आए और मेरे पोस्ट को पढ़े
मेरे पोस्ट की लिंकhttps://shrikrishna444.blogspot.com/?m=1
स्वागत व आभार !
हटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3764 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत बहुत आभार !
हटाएंसटीक और सामयिक
जवाब देंहटाएंसटीक !
जवाब देंहटाएंसटीक और सामयिक
जवाब देंहटाएंThanks For Sharing
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स्वागत व आभार !
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