धरती सदा लुटाती वैभव
धरती हर तन को धारे है
वसुधा तप से प्राणी हैं थिर,
पृथ्वी का आकर्षण बाँधे
भूमि में ही मिलेंगे इक दिन !
छिपे धरा में मोती-माणिक
नदियाँ बहतीं हिम शिखरों से,
रुधिर नाड़ियों में संचारित
अनगिन राज छिपे नर तन में !
भू भ्रमण चले अपने धुर पर
परिक्रमा रवि की भी करती,
तन भी मुड़-मुड़ देखे खुद को
प्रदक्षिणा सविता मेधा की !
धरा स्थूलतम टिकी सूक्ष्म पर
देह भी मन के रहे आश्रित,
मन में मृत यदि जीवन आशा
कर देता है इसे विखण्डित !
धरा शुद्ध हो कुसुम खिलाये
शुभ सुंदर लावण्य लुभाये,
नयन हँसे रोम-रोम पुलकित
गालों पर गुलाब खिल जाएँ !
महाभूत यह महादेव का
धरती सदा लुटाती वैभव,
कैसे यह उपकार चुकेगा
सदा बिखेरे करुणा सौरभ !
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 25 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत आभार !
हटाएंवाह वाह
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंआदरणीया मैम ,
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर कविता. सच हम धरती माँ का उपकार कभी नहीं चूका सकते। प्रकृति माता सदा ही करुणामयी हो क्र हमारा पालन पोषण करती रहतीं हैं।
अब से मेरा यहाँ आना होता रहेगा।
सुंदर रचना के लिए ह्रदय से आभार व मेरी रचना "अहिल्या " पर आपके प्यारभरे आशीष के लिए भी ह्रदय से आभार व सादर नमन।
स्वागत है आपका !
हटाएंबेहतरीन रचना।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंधरती की इस महत्ता को कौन नहीं समझ पायेगा ... जीवन-दाई, सब को सब कुछ देती ही है ... अंत में समेत भी लेती है अपने अंक में ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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