मन पंकज बन खिल सकता था
तन कैदी कोई मन कैदी
कुछ धन के पीछे भाग रहे,
तन, मन, धन तो बस साधन हैं
बिरले ही सुन यह जाग रहे !
रोगों का आश्रय बना लिया
तन मंदिर भी बन सकता था,
जो मुरझा जाता इक पल में
मन पंकज बन खिल सकता था !
यदि दूजों का दुःख दूर करे
वह धन भी पावन कर देता,
जो जोड़-जोड़ लख खुश होले
हृदय परिग्रह से भर लेता !
जब विकल भूख से हों लाखों
मृत्यू का तांडव खेल चले,
क्या सोये रहना तब समुचित
पीड़ा व दुःख हर उर में पले !
मुक्ति का स्वाद चखे स्वयं जो
औरों को ले उस ओर चले,
इस रंग बदलती दुनिया में
कब कहाँ किसी का जोर चले !
सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 11 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंइस बदलती दुनिया में किसी का जोर चल ही नहीं सकता।
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत दिनों बाद आपका स्वागत है, आभार !
हटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
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