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शुक्रवार, दिसंबर 27

नया वर्ष

नया वर्ष 


चार दिन है शेष हैं 

फिर वर्ष यह खो जाएगा 

स्मृति बनाकर इतिहास के पन्नों में 

सहेज लिया जाएगा 

कितने सुख-दुख 

अपने दामन में छिपाये 

कितनी बार रोये मन 

कितना मुस्कुराए 

धरती ने सही कितने ही दंश 

गगन पर घन कितने छाये 

देशों के भाग्य बने, टूटे 

 मौसम ने कितने

ख़ुद में बदलाव लाए 

जीवन यूँही चलता जाए 

हर नया वर्ष कुछ पल थम 

ख़ुद को देखने का

 अवसर दे जाये 

व्यक्ति, समाज और राष्ट्र 

सभी को अवलोकन कराए  

जो बीत गया उससे देकर सीख 

नया वर्ष आगे ले जाये ! 


गुरुवार, अक्टूबर 24

जीवन यही तो माँगता

जीवन यही तो माँगता


हम कौन हैं ? यह याद है ?

गर याद,  दिल आबाद है 

आबाद है इक ख़्वाब से 

मंज़िल यहीं, इस बात से  !

 

 है याद? हमको क्या मिला?

गर याद है तो क्या गिला !

पग धरने को धरती मिली 

उड़ने को आसमां मिला !


साँसे मिलीं, इक मन मिला 

 मन में बसा प्रियतम मिला, 

 यह याद है ? क्या भेंट दी 

गर याद है तो क्या किया ? 


माँगा सदा चाहा सदा 

सिमटा ह्रदय बाँटा कहाँ,

जो पास अपने गर लुटा 

रोशन रहे दिल का जहाँ  !


सुख-चैन बरसेगा अगर 

चलता रहे दिन-रात बस 

हम कौन?हमको क्या मिला? 

से क्या दिया? का सिलसिला !


गुरुवार, सितंबर 12

सच से नाता तोड़ लिया जब

सच से नाता तोड़ लिया जब

शब्दों में ताक़त होती है 

शब्द अगर सच कहना जानें,

धरती ज्यों सहती आयी है 

संतानें भी सहना जानें !


माटी, जल में विष घोला है 

पनप रही यहाँ  लोभ संस्कृति, 

खनन किया, वन जंगल काटे 

 आयी बुद्धि में भीषण विकृति !


युद्धों के पीछे पागल है 

दीवाना मानव क्या चाहे, 

शिशुओं की मुस्कानें छीनीं 

 रहीं अनसुनी माँ की आहें !


कहीं सुरक्षित नहीं नारियाँ 

वहशी हुआ समाज आज है, 

अनसूया-गार्गी  की धरती 

भयावहता  का क्यों राज है !


कहाँ ग़लत हो गयी नीतियाँ 

भुला दिये सब सबक़ प्रेम के, 

अपना स्वार्थ सधे कैसे भी 

शेष रहें हैं मार्ग नर्क के !


टूट रहे परिवार, किंतु है 

सीमाओं में जकड़ा मानव !

सच से नाता तोड़ लिया जब  

जागा भीतर सोया दानव !


बुधवार, जून 5

अब चलो, पर्यावरण की बात सुनें

अब चलो, पर्यावरण  की बात सुनें 


ख़त्म हुई चुनाव की गहमा गहमी 

अब चलो, पर्यावरण  की बात सुनें 


सूखते जलाशयों पर नज़र डालें 

कहीं झुलसती धरती की बात सुनें 


कहीं घने बादलों का करें स्वागत

उफनती नदियों का दर्द भी जानें  


पेड़ लगायें, जितने गिरे या कटे   

जल बचायें, भू में जज्ब होने दें  


गर्म हवाओं में इजाफ़ा मत करें  

ग्रीनहाउस गैसों को ना बढ़ायें 


बरगद लगायें बंजर ज़मीनों पर 

न हो, गमलों में चंद फूल खिलायें 


पिघल रहे ग्लेशियर बड़ी तेज़ी से 

पर्वतों पर न अधिक  वाहन चलायें 


सँवारे कुदरत को, न कि दोहन करें 

मानुष   होने का कर्त्तव्य निभायें 


पेड़-पौधों से ही जी रहे प्राणी 

है यह धरा  जीवित, उसे बसने दें 


जियें स्वयं भी जीने दें औरों को

नहीं कभी कुदरती आश्रय ढहायें 


साथ रहना है हर हाल में सबको 

बात समझें, यह  औरों को बतायें ! 


सोमवार, मार्च 18

गहराई में जा सागर के

गहराई में जा सागर के 


हँसना व हँसाना यारों 

 अपना शौक पुराना है,

आज जिसे देखा खिलते 

कल उसको मुरझाना है !

 

जाने कब से दिल-दुनिया 

ख़ुद के दुश्मन बने हुए, 

बड़े जतन कर के इनको 

तम से हमें जगाना है !

 

बादल नहीं थके अब भी  

कब से पानी टपक रहा ,

आसमान की चादर में 

 हर सुराख़ भरवाना है !


सूख गये पोखर-सरवर  

 दिल धरती का अब भी नम, 

उसके आँचल से लग फिर 

जग की प्यास बुझाना है !


दर्द छुपा सुख  के पीछे  

 संग फूल के ज्यों कंटक, 

किसी तरह  हर बंदे को 

 माया से भरमाना है !


ऊपर ही सोना भीतर 

पीतल, पर उलटा भी है 

गहराई में  सागर के  

सच्चा मोती पाना है !


सोमवार, अगस्त 21

माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः

माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः

धरती हमें धरती है 

माँ की तरह 

पोषित करती है 

फल-फूल, अन्न,  शाक से 

क्षुधा हरती है 

वे पात्र जिनमें ग्रहण किया भोजन 

वे घर जो सुरक्षा दे रहे 

वे वस्त्र जो बचाते हैं 

सजाते हैं ग्रीष्म, शीत, वर्षा से 

सभी तो धरती माँ ने दिये 

अनेक जीवों, प्राणियों का आश्रय धरा 

उसने कौन सा दुख नहीं हरा 

अंतरिक्ष की उड़ान के लिए मानव ने 

ईंधन कहाँ से पाया 

आलीशान पोत बनाये 

समान कहाँ से आया 

धरा से लिया है सदा हमने 

कृतज्ञ होकर पुकारा है कभी माँ ! 

विशाल है धरा 

जलाशयों, सागरों 

और पर्वतों का आश्रय स्थल 

भीतर ज्वाला की लपटें 

तन पर हिमाच्छादित शिखर 

रेतीले मैदान और ऊँचे पठार 

वह सभी कुछ धारती है 

निरंतर घूमती हुई 

अपनी धुरी पर 

सूर्य की परिक्रमा करती है 

हरेक का जीवन संवारती है 

उसका दिल इतना कोमल है कि 

एक पुकार पर पसीज जाता है 

धरती को अपना नहीं अपने बच्चों का 

ख़्याल घुमाता है !


शनिवार, नवंबर 5

धरती

धरती 


धरती माँ है 

माँ की तरह 

धरती है अपनी कोख में संतति 

हज़ारों सूक्ष्म जीव 

कीट, मीन, तितलियाँ, पशु-पंछी

वन-जंगल और ‘मानव’ को भी 

जो घायल कर रहा है उसे 

कंक्रीट के जंगल उगाता  

जीते-जागते पर्यावरण को नष्ट करके 

धरा के गर्भ से तेल उलीच 

समंदरों को विषैला बनाता  

हज़ार जीवों के प्राण ले 

अतिक्रमण करता ही जा रहा है मानव 

धरती झेल रही थी 

तप्त हो रही अब  

 स्वस्थ नहीं है वह

भूमिकंप शायद उसकी

 कंपकंपाहट  है 

असमय वर्षा से 

मानो कोई सहला रहा है उसे 

अब भी समय है, चेते 

  संयमित हो यदि विकास

और  पीड़ा न दे उसे 

तो रह सकता है सुरक्षित

मानव ! वरना …. 


रविवार, मई 8

वसुंधरा


  वसुंधरा 
जल धाराओं के सिंचन से
तृप्त हुई माँ
उलीचती हरियाली
निज अंतर में कुछ न रखती
सभी यहाँ लौटा देती है
गंध, स्वाद, रंग बन मिलती
धरती कई रूप में खिलती !
पुरवाई भी हुई शीतला
जल संस्पर्श हर गया तप्तता
झूमें वृक्ष, डालियाँ थिरकें
विहग विहँसते.. परस पवन का !
अन्तरिक्ष प्रफ्फुलित उर में
मूक, मौन हो सबको धारे
रवि मयूख धेनु बना कर
नील गगन का रूप संवारे !
सृष्टि रंग मंच पर नित ही
खेल नये नित खेले जाते
उसी चेतना के हित हैं ये
उससे ही हैं भेजे जाते !

रविवार, अप्रैल 17

धरती अंबर मिल लुटा रहे



धरती अंबर मिल लुटा रहे
​​
जो कुछ भी हमने बाँटा है 
वह द्विगुणित होकर हमें मिला, 
यदि प्रेम किया अणु मात्र यहाँ 
अस्तित्त्व ने सहज भिगो दिया !
 
शुभता को भेजें जब जग में 
वह घेर हमें भी लेती है, 
धारा शिखरों से उतर चली 
पुनः बदली बन छा जाती है !
 
देते रहना ही पाना  है 
ख़ाली दामन ही  भरता है, 
धरती अंबर मिल लुटा रहे 
‘वह’ परिग्रही पर  हँसता है !
 
जब बदल रहे पल-पल किस्से 
कोई न सच कभी जान सका, 
हर बांध टूट ही  जाता है 
कब तक धाराएँ थाम सका !

मंगलवार, जुलाई 27

अस्तित्त्व

अस्तित्त्व 

जब अंतर झुका हो 

तब अस्तित्त्व बरस ही जाता है 

कुछ नहीं चाहिए जब 

तब सब कुछ अपनत्व की 

डोर से बंध जाता है 

कदमों को धरा का परस

माँ की गोद सा लगता 

सिर पर आकाश का साया 

पिता के मोद सा 

हवा मित्र बनकर सदा साथ है 

जल मन सा बहता भीतर 

अनल प्रेम की सुवास है 

हर घड़ी कोई आसपास है  

जब अनंत का स्पर्श किया जा सकता हो 

तो कोई क्यों बंधन सहे 

जब अनायास ही बरसता हो आनंद 

तो क्यों कोई क्रंदन बहे 

बस जाग कर देखना ही तो है 

स्वप्न में जी रहे नयनों को  

अपना मुख मोड़ना ही तो है 


सोमवार, जून 21

धरती, सागर, नीलगगन में

धरती, सागर, नीलगगन में 


सत्यम,  शिवम, सुंदरम तीनों 

झलक रहे यदि अंतर्मन में, 

बाहर वही नजर आएँगे 

धरती, सागर, नीलगगन में !


सत्यनिष्ठ उर तीव्र संकल्प 

बन शंकर सम करे कल्याण, 

सुंदरता का बोध अनूठा 

जगा दे जड़-चेतन में प्राण !


कुदरत भी अनुकूल हो रहे 

अंतर अगर सजग हो जाये, 

हर दूरी तज स्वजन बना ले 

दोनों एक साथ सरसायें !


अंतर्मन हो सदा प्रतिफलित 

बाहर सहज सृष्टि बन जाता,

उहापोह हर द्वंद्व मनस का 

जग में कोलाहल बन जाता !