क्या है मेरे ‘मैं’ की परिभाषा
इस पर ही जीवन भवन बनेगा
देह मात्र की दीवारों पर यदि टिका तो
जर्जर हो अति शीघ्र गिरेगा
अहंकार ‘मैं’ बन कर बोले
यह जरा ठेस से इत-उत डोले
मन बुद्धि को ही ‘मैं’ मानो
कारागार बनेगा जानो
‘मैं’ को नभ तक विस्तृत कर लें
छत हो अम्बर, धरा फर्श हो
पर्वत, वन दीवारें कर लें
नदियों को भीतर बहने दें
फूलों को भी मीत बनाएं
सीमाएं तज जाति-पांति की
मानव की गरिमा फिर पाएं
नहीं झुकें आपद के आगे
नहीं व्यर्थ के गाल बजाएं
‘मैं’ को पावन शुद्ध करे जो
‘उसमें’ ही सारा जग पाएं !
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
30/08/2020 रविवार को......
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शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
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धन्यवाद
बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
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