कोई नानक ध्यान लगाता
हम भीतर से अनभिज्ञ सदा 
बस बाहर-बाहर जीते हैं, 
अंतर पटल उलझने देते 
तन हित पट रेशम सीते हैं !
जब बाहर थे अम्बार लगे 
अतुलित दौलत धन वैभव के, 
भीतर कुछ घटता जाता था 
जिसको ना इसमें सार लगे !
जब इर्द-गिर्द सीमाएं रच 
रिश्तों को उनमें कैद किया, 
कुछ टूट गया था भीतर भी 
जब जीवन पर सन्देह किया !
उर डरा कभी सिर भी थामा
तन ने कितने सन्देश दिए, 
मुस्कान कहाँ वह भीतर की 
ऊपर-ऊपर लब  हँसा किये !
मस्तिष्क के तंतु रोते हैं 
धड़कन दिल की जब बढ़ जाये, 
कम्पन अंगों में होता है
हम लेकिन देख कहाँ पाए !
भीतर की रग-रग से वाकिफ 
कोई नानक ध्यान लगाता, 
इक-इक रेशे को पोषित कर 
बाहर भी सुख-चैन लुटाता ! 

हर किसी में नानक कहाँ।
जवाब देंहटाएंअगर अंदरू जान लें तो वास्तविक सुख का अनुभव हो जाये।
बहुत गहरी और सार्थक रचना।
नई रचना- समानता
सही कह रहे हैं आप, पर नानक को प्रेम करने का अर्थ है उसके चरणचिह्न पर चलना
हटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया। सभी को गुरुनानक के सेवा भाव और उनकी शिक्षाओं को जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा ! स्वागत व आभार !
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