प्रसाद
बरस रहा है कोई अनाम जल
जो भिगोता है भीतर-बाहर सब कुछ
भीग जाता है हर कोना कतरा अंतर का
तरावट से भर जाती है मन की माटी
इसका कोई स्रोत नजर नहीं आता
पर भर लेती है अपने आगोश में
प्रकाश की एक धारा
बरसती है अकारण कभी-कभी
शायद सदा ही
पर नजर आती है कभी-कभी
जाने क्यों !
शायद वह किसी का सन्देश लाती है
अंतर को भरने आती है
प्रेम और करुणा से
सूना न रहे एक क्षण के लिए भी मन का घट
बहती रहे पुरवाई सदा मन के आंगन में
वह जताने आती है अकेले नहीं हैं हम
हर पल कोई साथ है
भर देती है अनोखी सिहरन रग-रग में
कर देती पावन शब्दों को भी अपने परस से
कैलाश के हिमशिखरों सा
या गंगा के शीतल निर्मल जल जैसा
मानसरोवर में तैरते हंसों की तरह
अथवा उषा की लालिमा में छायी सूर्य की प्रथम रश्मि सी
वह एक नजर है किसी गुरू की
जो हर लेती है सारा विषाद शिष्य के अंतर का
या एक स्पर्श है माँ के हाथों का
अथवा तो पिता का सबल आधार है
जो शिशु को डिगने नहीं देता
इन सबसे बढ़कर वह सहज प्रेम है
या उसमें सब कुछ समाया है
वह किसी सीमा में नहीं बंधता
उसे मापा नहीं जा सकता
वह अज्ञेय है
अपार है, अनंत है
तो फिर यही कह दें
वह ‘उसी’ का प्रसाद है !
उसे मापा नहीं जा सकता
जवाब देंहटाएंवह अज्ञेय है
अपार है, अनंत है
तो फिर यही कह दें
वह ‘उसी’ का प्रसाद है ! ... जीवन दर्शन से परिपूर्ण उत्कृष्ट रचना ।
स्वागत व आभार जिज्ञासा जी !
हटाएंबेहतरीन रचना आदरणीया
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बहुत आभार रवींद्र जी !
जवाब देंहटाएंजो गुरूदेव की कृपादृष्टि पा गया, ऐसी रचना वही कर सकता है, माधुर्य निर्झरी बह रही है।
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