उसी मूल से मन आया है
नीलगगन पर तिरते मेघा
सूर्य-चन्द्र, तारागण अनुपम,
धार अनूठी, नीर सुवासित
कुदरत की यह महिमा मधुरिम !
अभिनव किसी स्रोत से उपजे
उसी मूल से मन आया है,
मधुराधिपति का भव अष्टधा
मन से ही उपजी काया है !
वही चेतना सुंदर बनकर
बिखर गयी कण-कण में जग के,
सत्यम शिवम सुंदरम् की ही
अभिव्यक्ति हो बस जीवन में !
हास्य मधुर हो, वाणी मीठी
रसमय चितवन, याद अनूठी,
शब्द-शब्द रस से भीगा हो
एक खानि है भीतर रस की !
आत्मस्रोत चैन का उद्गम
गंगा सा निर्मल बह जाए,
सृजन घटे छाया है उसकी
वही सदा अंतर को भाए !
पूरी रचना प्राकृतिक सुंदरता तथा जीवन दर्शन के सुंदर रसों से भीगी हुई ।बहुत शुभकामनाएं आपको आदरणीय दीदी ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार प्रिय जिज्ञासा जी !
हटाएंवही चेतना सुंदर बनकर
जवाब देंहटाएंबिखर गयी कण-कण में जग के,
सत्यम शिवम सुंदरम् की ही
अभिव्यक्ति हो बस जीवन में !
काश कहीं तो दिखे ये सत्यम शिवम् सुन्दरम
स्वागत व आभार संगीता जी, यह दिख रहा है कण-कण में, पर आपका इशारा आज के भीषण माहौल की तरफ है शायद, किन्तु प्रकृति आज भी हमें माँ की तरह पोषित कर रही है।
हटाएंएकदम सटीक चित्रण,वही परम चेतना विभिन्न रूप धर कर अवतरित होती है.पंत ने यों वर्णित किया है -
जवाब देंहटाएं'वही प्रज्ञा का सत्य स्वरूप हृदय में बनता प्रणय अपार ,
लोचनों में लावण्य अनूप ,लोक सेवा में शिव अविकार.'
वही सौन्दर्य विभिन्न रूपों में जीवन को रमणीय बनाता है.
सुन्दर सृजन !
कविता के मर्म को समझ कर आपने पंत की अनुपम पंक्ति को साझा किया है, हृदय से आभार प्रतिभा जी !
हटाएंबहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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