सृष्टि का रहस्य नहीं जाने
धरती बाँटी, सागर बाँटे
अंतरिक्ष भी बाँटा हमने,
टूट गईं सारी सीमाएं
जब-जब भी चाहा कुदरत ने !
तूफ़ानों का क्रम कब थमता
मानव सिंधु-सिंधु मथ डाले,
आसमान में बादल फटते
सरि पर चाहे बांध बना ले !
रोग नए नित बढ़ते जाते
पाँच सितारा अस्पताल हैं,
मौसम भीषण रूप दिखाते
हिमपात कहीं घोर ज्वाल हैं !
कुदरत पर कुछ जोर न चलता
मानव कितना हो बलशाली,
सृष्टि का रहस्य नहीं जाने
हो ज्ञानवान, वैभवशाली !
कुछ रहस्य, रहस्य ही रहते
खुद को ही यह बोध सिखा लें,
जिस अनंत में ठहरा है सब
उस अनाम से नजर मिला लें !
कुदरत पर कुछ जोर न चलता
जवाब देंहटाएंमानव कितना हो बलशाली,
सृष्टि का रहस्य नहीं जाने
हो ज्ञानवान, वैभवशाली !---वाह बहुत ही खूबूसूरत रचना है। खूब बधाई
कुछ रहस्य, रहस्य ही रहते
जवाब देंहटाएंखुद को ही यह बोध सिखा लें,
जिस अनंत में ठहरा है सब
उस अनाम से नजर मिला लें !
बहुत खूब अनीता जी ! प्रकृति पर अतिक्रमण की सभी सीमाएं लांघ कर इंसान अपने आप को निर्दोष कहता है |लेकिन सृष्टि एक रहे है और हमेशा राहेगी | हार्दिक शुभकामनाएं सार्थक रचना के सृजन के लिए
जी हाँ। कुछ रहस्य तो सदा रहस्य ही बने रहते हैं। शायद उनका रहस्य बना रहना ही बेहतर भी है। अच्छी कविता रची है आपने। अभिनंदन।
जवाब देंहटाएंसत्य को संदर्भित करती सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता
जवाब देंहटाएंसृष्टि के रहस्य,गुप्त रहें इसी में सबका कल्याण है अन्यथा मनुष्य ही कर गज़ब ढाने .
जवाब देंहटाएंआप सभी सुधीजनों का हृदय से स्वागत व आभार !
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