प्रीत बिना यह जग सूना है
प्रीत जगे जिस घट अंतर में
वही कुसुम सा विहँसे खिल के,
यह वरदान उसी से मिलता
जो माधव मधुर सलोना है !
प्रीत घटे वसंत छा जाता
उपवन अंतर का महकाता,
भावों की सरिता को भी तो
कल-कल छल-छल नित बहना है !
जहाँ प्रेम का पुष्प न खिलता
घट वह मरुथल सा बन जाता,
शुष्क हृदय में बसे न श्यामा
नित कलरव वहाँ गुँजाना है !
प्रीत से ही धरा गतिमय यह
पंछी, पादप, पशु का जीवन,
प्रेम से ही होता है सिंचन
जगती को नूतन होना है !
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (1-6-21) को "वृक्ष"' (चर्चा अंक 4083) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार कामिनी जी !
हटाएंप्रीत ही सृष्टि है । सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंसच है 'प्रेम के बिना नीरस है यह संसार'
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
बहुत ही उम्दा भाव और लेखनी।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंनमस्कार अनीता जी, बहुत सुंदर रचना पढ़वाने के लिए आभार...कि "जहाँ प्रेम का पुष्प न खिलता
जवाब देंहटाएंघट वह मरुथल सा बन जाता,
शुष्क हृदय में बसे न श्यामा
नित कलरव वहाँ गुँजाना है !" वाह
स्नेह और प्रेम ही जीवन का आधार है,सार्थक सत्य समझाती सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंआप सभी सुधीजनों का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंजीवन का अति सुन्दर मूल्यांकन !
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत, प्रीत बिना जग सूना सचमुच नीरस स्वादहीन लगता है
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