मंजिल या मझधार
हम पहुँच ही जाते हैं किनारे पर
कि कोई लहर बहा ले जाती है
संग अपने
और डूबने लगते हैं फिर मझधार में
न जाने कितनी बार
यह इतिहास दोहराया गया है
मंजिल जिसे समझ बैठे थे
हर बार वह रास्ता ही पाया गया है
जब अनंत है वह
तो मंजिल बन भी नहीं सकता
अनंत ही होंगे उसके ठिकाने
अनंत की हो तो चाहत मन में
तभी वह मिलेगा
जीवन का यह भेद जानकर ही
मन का कमल खिलेगा
वह पूर्ण है तो पूर्णता में ही उसे खोजना होगा
कोई भी अभाव न खले भीतर
तभी एक क्षण के लिए भी
वह हाथ नहीं छोड़ेगा !
सच है ,ईश्वर पर पूर्ण विश्वास ही हमें मंज़िल तक पहुंचता है और हर पल राह दिखता है !!
जवाब देंहटाएंयह इतिहास दोहराया गया है
जवाब देंहटाएंमंजिल जिसे समझ बैठे थे
हर बार वह रास्ता ही पाया गया है
आस्था हो तो हर मंजिल मिल ही जाएगी .... वो साथ नहीं छोड़ेगा .
सही है संगीता जी, आभार !
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल .मंगलवार (15 -6-21) को "ख़ुद में ख़ुद को तलाशने की प्यास है"(चर्चा अंक 4096) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार कामिनी जी !
हटाएंबहुत गहन रचना है।
जवाब देंहटाएंवाह! आस्था के सुंदर आयाम ।
जवाब देंहटाएंअभिनव सृजन।