सोमवार, जून 21

धरती, सागर, नीलगगन में

धरती, सागर, नीलगगन में 


सत्यम,  शिवम, सुंदरम तीनों 

झलक रहे यदि अंतर्मन में, 

बाहर वही नजर आएँगे 

धरती, सागर, नीलगगन में !


सत्यनिष्ठ उर तीव्र संकल्प 

बन शंकर सम करे कल्याण, 

सुंदरता का बोध अनूठा 

जगा दे जड़-चेतन में प्राण !


कुदरत भी अनुकूल हो रहे 

अंतर अगर सजग हो जाये, 

हर दूरी तज स्वजन बना ले 

दोनों एक साथ सरसायें !


अंतर्मन हो सदा प्रतिफलित 

बाहर सहज सृष्टि बन जाता,

उहापोह हर द्वंद्व मनस का 

जग में कोलाहल बन जाता !


 

6 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल .मंगलवार (22 -6-21) को "योग हमारी सभ्यता, योग हमारी रीत"(चर्चा अंक- 4103) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    --
    कामिनी सिन्हा

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  2. कुदरत भी अनुकूल हो रहे

    अंतर अगर सजग हो जाये,

    हर दूरी तज स्वजन बना ले

    दोनों एक साथ सरसायें !--

    बहुत अच्छी पंक्तियां अनीता जी। रचना भी बहुत अच्छी है।

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  3. स्वागत व आभार सन्दीप जी !

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  4. वाह ...
    सत्यम शिवन मुन्द्रम के बाह्य रूप को भी बाखूबी प्रकाश में ला दिया ...
    धरती सागर नीलांगन ... बहुत उत्तम ...

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