महाकाल सँग इक हो जाएँ
लय खोयी छूटा छंद आज
जीवन में छाया महा द्वंद्व,
कविता सोयी भाव अनमने
कहाँ खो गया मधुर मकरंद !
समय पखेरू उड़ता जाता
काल चक्र अनवरत चल रहा,
आयु पोटली से रिस घटती
बढ़ती कह नर स्वयं छल रहा !
भूल ग़या दिल जिन बातों को
उन पर अब क्यों वक़्त बहाएँ,
मन थम जाए समय थमेगा
महाकाल सँग इक हो जाएँ !
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (27-07-2022) को
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच "दुनिया में परिवार" (चर्चा अंक-4503) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
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