मंगलवार, जुलाई 26

महाकाल सँग इक हो जाएँ

महाकाल सँग इक हो जाएँ 


लय खोयी छूटा छंद आज 

जीवन में छाया महा द्वंद्व, 

कविता सोयी भाव अनमने 

कहाँ खो गया मधुर मकरंद !


समय पखेरू उड़ता जाता 

काल चक्र अनवरत चल रहा, 

आयु पोटली से रिस घटती  

बढ़ती कह नर स्वयं छल रहा !


भूल ग़या दिल जिन बातों को 

उन पर अब क्यों वक़्त बहाएँ, 

मन थम जाए समय थमेगा 

महाकाल सँग इक हो जाएँ !


2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (27-07-2022) को
    चर्चा मंच     "दुनिया में परिवार"   (चर्चा अंक-4503)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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