सोमवार, जुलाई 11

एक कंकर चाहतों का

एक कंकर चाहतों का 


टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ा मन 

  बुत इक अद्भुत बना लिया, 

 कभी सोया जागा कभी 

कुछ स्वप्नों से सजा लिया !


दर्पण झील हुआ जब थिर  

था चाँद उसमें झाँकता ,

एक कंकर चाहतों का 

तिलिस्म पल में मिटा गया !


जो था नहीं, है न होगा 

 उसे सँवारा करता  जग,

 छुपा नजर के पीछे जो

 खुद को उससे बचा गया  !


राज क्या उनकी ख़ुशी का 

राहबर बन जो मिले थे, 

मिले सब यह रोग छूटा 

जो पाया गुनगुना लिया !


12 टिप्‍पणियां:

  1. ये मन ही न सारी खुराफातों की जड़ है । बेहतरीन लिखा है अनिता जी ।

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    1. सही कहा है आपने संगीता जी, इसे विश्राम की ज़रूरत है, पर यह बैठना ही नहीं चाहता, स्वागत व आभार!

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-7-22) को सोशल मीडिया की रेशमी अंधियारे पक्ष वाली सुरंग" (चर्चा अंक 4488) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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  3. एहसासों से सिंचित सुंदर प्रस्तुति।
    अप्रतिम।

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  4. वाणभट्ट जी, कुसुम जी व ओंकार जी, आप सभी का स्वागत व आभार!

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  5. "जो पाया गुनगुना लिया।।" वाह!

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