अंतर में इक दीप जलाये
खुद का खुद से मिलना कैसा
कली-पुष्प में खिलने जैसा,
लहर सिंधु में ज्यों खो जाये
सुरभि चमन में भरने जैसा !
नभ में कोई खुले झरोखा
जल का इक सरवर दिख जाये,
छुपी शिला में मूरत कोई
मन की आँखों से लख जाये !
ध्वनियों का इक मधुरिम आकर
निशदिन कोई तान सुनाये,
अम्बर में अनगिन सूरज हैं
अंतर में इक दीप जलाये !
पलक झपकते ही जैसे यह
जग पल में विलीन हो जाता,
अद्भुत मिलन घटे जब तुझसे
जगत कहीं नजर नहीं आता !
हृदय का दीप जले तो जग उजियारा है!!बहुत सुंदर रचना!!
जवाब देंहटाएंनभ में कोई खुले झरोखा
जवाब देंहटाएंजल का इक सरवर दिख जाये,
छुपी शिला में मूरत कोई
मन की आँखों से लख जाये !
पूरी रचना ही कमाल है । बहुत सुंदर प्रस्तुति।
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २२ जुलाई २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी!
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 22 जुलाई 2022 को 'झूला डालें कहाँ आज हम, पेड़ कट गये बाग के' (चर्चा अंक 4498) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
बहुत बहुत आभार रवींद्र जी!
हटाएंकितना सुंदर चित्रण किया है इस कविता में। मन के आंतरिक भाव ही बाहरी सबकुछ देखने की दृष्टि देते है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता है दी
सादर
अंतर्मन में दीप जले तो सारे जग में उजियारा फैलते देर नहीं लगती
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
खुद का खुद से मिलना कैसा
जवाब देंहटाएंकली-पुष्प में खिलने जैसा,
वाह!!!
खुद से मिलना खुदा से मिलना
लाजवाब सृजन।
नभ में कोई न कोई झरोखा खुल ही जाएगा । मधुर ।
जवाब देंहटाएंअनुपमा जी, संगीता जी, अपर्णा जी, कविता जी, सुधा जी व नूपुर जी आप सभी का स्वागत व आभार!
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