कहीं धूप खिली कहीं छाया
यहाँ कुछ भी तजने योग्य नहीं
यह जगत उसी की है माया,
वह सूरज सा नभ में दमके
कहीं धूप खिली कहीं छाया !
दोनों का कारण एक वही
उसका कुछ कारण नहीं मिला,
वह एक स्वयंभू शिव सम है
उससे ही उर आनंद खिला !
नाता उससे क्षण भर न मिटे
इक धारा उसकी ओर बहे,
उससे ही पूरित हो अंतर
वाणी नयनों से उसे गहे !
उसी मौन से प्रकटी हर ध्वनि
खग, कोकिल कूक पुकार बनी,
सागर में उठी लहर जैसे
जल धारे ही पल-पल उठती !
जग नाटक है वह देख रहा
मन भी उसका ही मीत बने,
कुछ भी न इसे छू पायेगा
निर्द्वन्द्व ध्यान से भरा रहे !
मैंने यहाँ टिप्पणी की थी ..... अभी नहीं दिख रही ...
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणी कहाँ गयी, इसका तो मुझे भान नहीं, पर बहुत बहुत आभार त्वरित प्रतिक्रिया हेतु!
हटाएंजी, शायद स्पेम में है।
हटाएंआपकी लिखी रचना सोमवार 25 जुलाई 2022 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
बहुत बहुत आभार संगीता जी!
जवाब देंहटाएंईश्वर की कृपा हो तो रस्ते आसान हो जाते हैं !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर। सत्य लिखा आपने।
जवाब देंहटाएंकहीं धूप कहीं छाया
जवाब देंहटाएंजग तो है बस माया
सार सृष्टि का बस इतना
मूढ़ मन और नश्वर काया...।
-----
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
सादर।
अनुपमा जी, वोकल जी, श्वेता जी, व भारती जी आप सभी का स्वागत व आभार!
जवाब देंहटाएंवाकई मन विश्राम पाता है आपके ब्लॉग पर...
जवाब देंहटाएंलाजवाब।
आदरणीय अनीता जी देरी से आने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं स्वास्थ साथ नहीं दे रहा है। सच ही कहा आपने प्रकृति और प्रभु दोनों एक दुसरे के पूरक हैं और वही सकारात्मकता है वही जीवन है
जवाब देंहटाएंसार सृष्टि का बस इतना
जवाब देंहटाएंमूढ़ मन और नश्वर काया
.....बहुत सुंदर खूबसूरत रचना