मन का कैनवास
सिकुड़ जाता है मन का चोला
तो घुटने लगती हैं श्वासें
और जन्म होता है हिंसा का
शायद आत्मरक्षा में
मन घायल करता है
पहले स्वयं को
फिर अपनों को
यदि शांत न हो पीड़ा तो
समाज और
संसार को,
युद्धों का जन्म ऐसे ही होता है
सिकुड़ी संकुचित चेतना का परिणाम है क्रोध !
जब फैल जाता है मन का कैनवास
जिसमें समा जाते हैं धरती और आकाश
अपने-पराये सब हो अनुकूल
प्राणी, पशु, पौधे, चट्टान, फूल
तो प्रेम का जन्म होता है
प्रेम मुक्त करता है
सहलाता है
भर जाता है आनंद से
सारी कायनात को
तो किसको चुनेंगे
संकुचन या विस्तार
हिंसा या प्यार !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 30 जुलाई 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार यशोदा जी!
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (30-07-2023) को "रह गयी अब मेजबानी है" (चर्चा अंक-4674)) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
हटाएंबहुत सुन्दर पंक्तियां।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार रूपा जी!
हटाएंबहुत खूबसूरत सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार भारती जी!
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंवाह बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अभिलाषा जी !
हटाएंशानदार कविता...वाह अनीता जी
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अलकनंदा जी !
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