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शुक्रवार, अगस्त 11

विभूति

विभूति 


सुना है तेरी मर्ज़ी के बिना 

पत्ता भी नहीं हिलता 

कोई चुनाव भी करता है 

तो तेरे ही नियमों के भीतर 

चाँद-तारे तेरे बनाये रास्तों पर 

भ्रमण करते 

नदियाँ जो मार्ग बदल लेतीं, कभी-कभी 

उसमें भी तेरी रजा है 

सुदूर पर्वतों पर फूलों की घाटियाँ उगें 

इसका निर्णय भला और कौन लेता है 

हिमशिखरों से ढके उत्तंग पर जो चमक है 

वह तेरी ही प्रभा है 

कोकिल का पंचम सुर या 

मोर के पंखों की कलाकृति 

सागरों की गहराई में जगमग करते मीन 

और जलीय जीव 

मानवों में प्रतिभा के नये-नये प्रतिमान 

तेरे सिवा कौन भर सकता है 

अनंत हैं तेरी विभूतियाँ 

हम बनें उनमें सहायक 

या फिर तेरी शक्तियों के वाहक 

ऐसी ही प्रार्थना है 

इस सुंदरता को जगायें स्वयं के भीतर 

यही कामना है ! 


शुक्रवार, अप्रैल 3

देर है वहां अंधेर नहीं

देर है वहां अंधेर नहीं 


देर है वहां अंधेर नहीं 
तभी पुकार सुनी धरती की 
सूक्ष्म रूप में भू पर आके 
व्यवस्था काल लगा है लाने 
कामना और आवश्यकता का अंतर समझाने 
बेघरों को आश्रय दिलवाने 
बच्चों और बुजुर्गों को उनका समय दिलाने 
वरना आज का युवा सुबह से निकला रात को घर आया 
मनोरंजन के साधन खोजे, भोजन भी बाहर से मंगवाया 
परिवार में साथ रहकर भी सब साथ कहाँ थे 
सब कुछ था, पर ‘समय’ नहीं था 
न अपने लिए न अपनों के लिए 
घर चलते थे सेवक-सेविकाओं के सहारे 
भूल ही गए थे घर में भी होते हैं चौबारे 
सुबह की पूजा, दोपहर का ध्यान, शाम की संध्या 
तीनों आज प्रसन्न हैं 
जलता है घर में दीया, योग-प्राणायाम का बढ़ा चलन है 
हल्दी, तुलसी, अदरक का व्यवहार बढ़ा है 
स्वच्छता का मापदंड भी ऊपर चढ़ा है 
शौच, संतोष, स्वाध्याय... अपने आप 
यम-नियम सधने लगे हैं 
भारत की पुण्य भूमि में अपनी संस्कृति की ओर
लौटने के आसार बढ़ने लगे हैं 
‘तप’ ही यहां का मूल आधार है 
ब्रह्मा ने तप कर ही सृष्टि का निर्माण किया 
शिव ने हजारों वर्षों तक ध्यान किया 
कोरोना को भगाने के लिए हमें तपना होगा 
 जीवन के हर क्षण को सद्कर्मों से भरना होगा ! 

शुक्रवार, अगस्त 30

खो गया है आदमी

खो गया है आदमी

भीड़ ही आती नजर  
खो गया है आदमी,
इस जहाँ की इक फ़िकर
 हो गया है आदमी !

दूर जा बैठा है खुद
फ़ासलों की हद हुई,
हो नहीं अब लौटना
जो गया है आदमी !

बेखबर ही चल रहा
पास की पूंजी गंवा,
राह भी तो गुम हुई
धो गया है आदमी !

बांटने की कला भूल
संचय की सीख ली,  
बंद अपने ही कफन में
सो गया है आदमी !

श्रम बिना सब चाहता
नींद सोये चैन की,
मित्र बन शत्रु स्वयं का
हो गया है आदमी !

प्रार्थना भी कर रहा  
व्रत, नियम, उपवास भी,
वश में करने बस खुदा  
लो गया है आदमी !