विभूति
सुना है तेरी मर्ज़ी के बिना
पत्ता भी नहीं हिलता
कोई चुनाव भी करता है
तो तेरे ही नियमों के भीतर
चाँद-तारे तेरे बनाये रास्तों पर
भ्रमण करते
नदियाँ जो मार्ग बदल लेतीं, कभी-कभी
उसमें भी तेरी रजा है
सुदूर पर्वतों पर फूलों की घाटियाँ उगें
इसका निर्णय भला और कौन लेता है
हिमशिखरों से ढके उत्तंग पर जो चमक है
वह तेरी ही प्रभा है
कोकिल का पंचम सुर या
मोर के पंखों की कलाकृति
सागरों की गहराई में जगमग करते मीन
और जलीय जीव
मानवों में प्रतिभा के नये-नये प्रतिमान
तेरे सिवा कौन भर सकता है
अनंत हैं तेरी विभूतियाँ
हम बनें उनमें सहायक
या फिर तेरी शक्तियों के वाहक
ऐसी ही प्रार्थना है
इस सुंदरता को जगायें स्वयं के भीतर
यही कामना है !