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मंगलवार, अप्रैल 1

अंतहीन सजगता

अंतहीन सजगता 


अपने में टिक रहना है योग  

योग में बने रहना समाधि 

सध जाये तो मुक्ति  

मुक्ति ही ख़ुद से मिलना है 

हृदय कमल का खिलना है 

क्योंकि ख़ुद से मिलकर  

उसे जान सकते हैं 

‘स्व’ से शुरू हुई यात्रा इस तरह 

‘पर’ में समाप्त होती  

पर थमती वहाँ भी नहीं 

जो अनंत है 

अज्ञेय है 

उसे जान 

कुछ भी तो नहीं जानते 

यही भान होता  

अध्यात्म की यात्रा में 

हर पल एक सोपान होता 

हर पल चढ़ना है 

सजग होके बढ़ना है 

कहीं कोई लक्ष्य नहीं 

कोई आश्रय भी नहीं 

अंतहीन सजगता ही

अध्यात्म है 

यही परम विश्राम है 

यहीं वह, तू और मैं का

 संगम है 

यहीं मिट जाता 

हर विभ्रम है ! 


शुक्रवार, जनवरी 17

प्रेम


प्रेम 


एक-दूजे को समझते हुए 
एक दूजे को ऊपर उठाते हुए 
साथ-साथ जीने का नाम ही प्रेम है 
अहंकार तज कर हँसते-हँसते हर मान-अपमान को 
सहने का नाम ही प्रेम है 
दूसरे को प्रीतिकर हों ऐसे वचन ही मुख से निकलें 
इस सजगता का नाम ही प्रेम है 
सब कुछ साझा है इस जहाँ में 
हर कोई जुड़ा है अनजान धागों से,
धरा, गगन, पवन, अनल और सलिल के साथ 
जुड़ाव महसूस करने का नाम ही प्रेम है 
मैत्री और साहचर्य का आनन्द लेने और बाँटने का नाम ही प्रेम है 
मुक्त है यह प्रेम एकाधिकार से, दुःख और घृणा से 
जो बाँधता नहीं मुक्त करता है 
अनंत से मिलाने का दम रखता है 
अंतर में शांति और आनंद भरता है 
एक समन्वय, सामंजस्य और बोध का नाम ही प्रेम है !  

गुरुवार, अगस्त 23

कवयित्री राजेश कुमारी का काव्य संसार- खामोश ख़ामोशी और हम


   
मुज्जफरनगर, उत्तरप्रदेश में जन्मी राजेश कुमारी जी, जियो और जीने दो.. में विश्वास रखती हैं. संगीत व चित्रकला में भी इनकी रूचि है. अतीत से सीख लेकर वर्तमान को सुधारतीं और भविष्य की ओर सजगता से कदम बढ़ातीं हैं. खामोश ख़ामोशी और हम में इनकी छह कवितायें हैं, सभी विविध विषयों पर लिखी हुईं. किसी में प्रेम की असीमता का वर्णन है जैसे, प्रिये हम कितनी दूर निकल आये, जमाने की ठोकर ने चलना सिखाया में जीवन की कटु सच्चाई का, भ्रूण हत्या का विरोध करती एक कविता है मुझको दुनिया में आने दो और बालिका शिक्षण को बढ़ावा देती देखो शिखर सम खड़ा हुआ, परमात्मा की कृपा का बखान करती मृग तृष्णा और जीवन का लेखाजोखा लेती जीवन आख्याति....

ना अब कुंठाओं के घेरे हैं
ना मायूसियों के साये
मैं पदचाप सुनूं तेरी
तू पदचाप सुने मेरी
...
बाँहों में बाहें थाम प्रिये
हम कितनी दूर निकल आये
देखो क्या मंजर है प्रिये
नभ धरा का मस्तक चूम रहा
तिलस्मी हो गयी दिशाएं
नशे में तृण तृण झूम रहा
रजनी हौले से आ रही
तारों भरा आंचल फैलाये
बाँहों में बाहें थाम प्रिये
हम कितनी दूर निकल आये
..
चल हाथ पकड़ मेरा प्रिये
अब अपने पथ पर बढ़ जाएँ
मैं पदचाप सुनूं तेरी
तू पदचाप सुने मेरी

समाज में कितने बच्चे और बच्चियां समय से पहले बड़े हो जाने को मजबूर हैं, बाल मजदूरी करने को विवश बच्चे अपना बचपन जी भी नहीं पाते कि समाज उनके हाथों में औजार पकड़ा देता है...

निष्ठुर हाथों ने बचपन छुड़ाया
जमाने की ठोकर ने चलना सिखाया
अभी खिसकना सीखा था
वक्त ने कैसे बड़ा किया
...
कुछ समाज की दोहरी चालों ने
कुछ दोगली फितरत वालों ने
समय से पहले बड़ा किया
अभी खिसकना सीखा था
वक्त ने कैसे बड़ा किया

बालिका भ्रूण हत्या आज समाज की ज्वलंत समस्या है, भारत के कितने ही राज्यों में लिंग का अनुपात विषम हो गया है. कवयित्री इस पर कलम उठाती है-

मैं तेरी धरा का बीज हूँ माँ
मुझको पौधा बन जाने दो
नहीं खोट कोई मुझमें ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो

...
जंगल उपवन खलिहानों में
हर नस्ल के पुष्प महकते हैं
स्वछन्द परिंदों के नीड़ों में
दोनों ही लिंग चहकते हैं

प्रकृति के इस समन्वय का
उच्छेदन मत हो जाने दो
नहीं खोट कोई मुझमें ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो

...
नारी अस्तित्त्व के कंटक का
मूलोच्छेदन करना होगा
तेरे दूध पर मेरा भी हक है
दुनिया को ये समझाने दो

अगली कविता कवयित्री ने उन माता-पिता के नाम की है जिन्होंने सर्वप्रथम बालिका शिक्षण की शुरुआत की.

देखो शिखर सम खड़ा हुआ
सकुचाया सा डरा डरा
..
जाने कब हो जाये हनन
सघन तरु की छाया में
इक नन्हा पौधा खड़ा हुआ
..
बीते कितने पतझड़ बसंत
हुआ कद उसका और बुलंद
...
अरि आलोचक मूक बनाये
अपने दम पर खड़ा हुआ
..
कहाँ भीरुता दुर्बल तन
अब बन गया वो तरु सघन
मेरी धरोहर मेरा वंश
उसके ही दम से चला हुआ

मृग तृष्णा शीर्षक कविता अपनी विषय वस्तु और सहज प्रवाह के कारण सीधा हृदय में प्रवेश करती है
मृग तृष्णा में लिप्त
अनवरत गति से भागते हुए
जब थक कर चूर होकर
मायूसी के मरुस्थल में लेट जाती हूँ
..
पूछती हूँ प्यासी हूँ कहाँ जाऊँ
उसने हथेली पे मेरी
एक जल की बूंद गिरा दी
अगर तू है
तो तुझे सुनना चाहती हूँ
उसने बादलों की गर्जना सुना दी
...
कैसे बनाऊँ अपना स्वर्ण महल
उसने चोंच में तिनका लेकर
जाती हुई चिड़िया दिखा दी
..
मैंने कहा अब विश्राम करना चाहती हूँ
उसने तरु की एक कोमल
पत्ती बिछा दी

जीवन आख्याति में कवयित्री जीवन की यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर पल भर ठहरती है और आगे बढ़ जाती है

दुनिया में आया तो जननी प्यारी मिली
वात्सल्यता की देवी
जीवन संचारी मिली
बाल्यावस्था में खेल खिलौने
पुस्तक और मित्रों की यारी मिली
किशोरावस्था में भ्रमित, जिज्ञासु  मन
और प्रश्नों की श्रंखला
विस्मयकारी मिली
युवावस्था में दिल की
संगत न्यारी मिली
..
प्रौढावस्था में कुछ परिपक्व अनुभव
कुछ संचयन आबंटन की हकदारी मिली
..
अतिम चरण में
मौत जीवन में भारी मिली

राजेश कुमारी जी कि इन कविताओं को पढ़ते हुए उनके सामाजिक सराकोरों से दो चार होते हुए और जीवन यात्रा का आकलन करते हुए एक सुखद अहसास हुआ, आशा है सभी सुधी पाठक जन भी इनका रसास्वादन करेंगे.