टूटी विस्मृति मन की
ओंउम् की पुकार उठी
हुई जागृत रग-रग तन की
रेशा रेशा लहराया
टूटी विस्मृति मन की !
श्वासों की डोर चली
मन पतंग हो उठा
तोड़ तन के बंधन
उड़ा किया चिदाकाश में !
लहर उठी श्वासों की
मानस तब हँस हुआ
तिरता रहा अनवरत
भावों के सरवर में !
श्वासों का पट बना
घिस घिस मन चमकाया
झलक उठा चिन्मय
अंतर के दर्पण में !
पुल बना श्वासों का
मानस की धारा पर
चल पड़ा यायावर
अनंत की खोज में !
श्वासों का दीप जला
हुआ उजाला भीतर बाहर
मन माणिक जगमगाया
अकम्पित लौ में !
माल गुंथी श्वासों की
ओंउम् के सुमनों से
थाम चला हाथों में
प्रियतम की खोज में !
श्वासों की बनी समिधा
मन हवन कुंड बना
सत्य तब प्रकट हुआ
ओंउम्.. ओंउम्... ओंउम्....!
अनिता निहालानी
७ फरवरी २०११
ॐ ...ॐ ...ॐ
जवाब देंहटाएंअध्यात्मिक ऊंचाई की सुन्दर सरस रचना
वाह ...बहुत ही खूबसूरत शब्द
जवाब देंहटाएंवसन्त की आप को हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंअनीता जी,
जवाब देंहटाएंहर बार की तरह उपस्थित हूँ :-)
उपस्थिति के लिये शुक्रिया शब्द छोटा है, फिर भी कहना तो शब्दों के माध्यम से ही है !
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