भीतर दोनों हम ही तो हैं
बाहर जितना-जितना बांटा
भीतर उतना टूट गया,
कुछ पकड़ा, कुछ त्यागा जिस पल
भीतर भी कुछ छूट गया !
यह निज है वह नही है अपना
जितना बाहर भेद बढ़ाया,
अपने ही टुकड़े कर डाले
भेद यही तो समझ न आया !
जिस पल हम निर्णायक होते
भला-बुरा दो दुर्ग बनाते,
भीतर भी दरार पड़ जाती
मन को यूँ ही व्यर्थ सताते !
दीवारें चिन डालीं बाहर
खानों में सब फिट कर डाला,
उतने ही हिस्से खुद के कर
पीड़ा से स्वयं को भर डाला !
द्वंद्व बना रहता जिस अंतर
नहीं वह सुख की श्वास ले सके,
कतरा-कतरा जीवन जिसका
कौन उसे विश्वास दे सके !
इक मन कहता पूरब जाओ
दूजा पश्चिम राह दिखाता,
इस दुविधा में फंस बेचारा
व्यर्थ ही मानव मारा जाता !
बाहर पर तो थोड़ा वश है
लाभ पकड़ हानि तज देंगे,
भीतर दोनों हम ही तो हैं
जो हारे, दुःख हमीं सहेंगे !
भीतर दुई का भेद रहे न
तत्क्षण एक उजाला छाये,
एकसूत्रता बाहर भाती
भीतर भी समरसता भाए !
Dvand ki aadhyaatmik vyakhya karti rachana ke liye aabhar.Dvand ki aadhyaatmik vyakhya karti rachana ke liye aabhar.
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन!
जवाब देंहटाएंसादर
भीतर दुई का भेद रहे न
जवाब देंहटाएंतत्क्षण एक उजाला छाये,
एकसूत्रता बाहर भाती
भीतर भी समरसता भाए !
bahut sateek
बहुत सुन्दर भावों को समेटा है इस कविता में .हार्दिक शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंभीतर दुई का भेद रहे न
जवाब देंहटाएंतत्क्षण एक उजाला छाये,
एकसूत्रता बाहर भाती
भीतर भी समरसता भाए !
यही तो जीवन का सार है।
अनुपम प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ढंग से बाहर से हटा मन को भीतर की तरफ
लगाने के लिए प्रेरित किया है आपने.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.नई पोस्ट जारी की है.
भाव एकता का लगता है |
जवाब देंहटाएंदो मन का या देश कहें ||
अनुभूति से भरा हुआ यह --
कविता या सन्देश कहें ||
बाहर पर तो थोड़ा वश है
जवाब देंहटाएंलाभ पकड़ हानि तज देंगे,
भीतर दोनों हम ही तो हैं
जो हारे, दुःख हमीं सहेंगे !
बहुत अच्छी प्रस्तुति. जीवन का सार यही है.
अनीता जी ..
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूबसूरती से आपने द्वन्द का कारण बता दिया ...बेहतरीन अभिव्यक्ति..
बाहर पर तो थोड़ा वश है
लाभ पकड़ हानि तज देंगे,
भीतर दोनों हम ही तो हैं
जो हारे, दुःख हमीं सहेंगे !
भीतर दुई का भेद रहे न
तत्क्षण एक उजाला छाये,
एकसूत्रता बाहर भाती
भीतर भी समरसता भाए !
बधाई आपको इस एकसूत्रता को महसूस करके शब्दों में पिरोने के लिए
जिस पल हम निर्णायक होते
जवाब देंहटाएंभला-बुरा दो दुर्ग बनाते,
भीतर भी दरार पड़ जाती
मन को यूँ ही व्यर्थ सताते !
द्वंद्व बना रहता जिस अंतर
नहीं वह सुख की श्वास ले सके,
कतरा-कतरा जीवन जिसका
कौन उसे विश्वास दे सके !
अनीता जी ......बहुत सुन्दर पंक्तियाँ.....जीवन को सही दिशा में मोड़ने वाली .....बहुत ही पसंद आयीं |
आपकी किसी पोस्ट की चर्चा है कल ..शनिवार(२-०७-११)को नयी-पुराणी हलचल पर ..!!आयें और ..अपने विचारों से अवगत कराएं ...!!
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