पावनी प्रकृति 
ठंड एकाएक बढ़ गयी थी 
ढक लिया परिवेश को
 कुहरे की घनी चादर ने 
वृक्ष के नीचे टपक रही बूँदे 
भीगा था घास का हर तिनका 
उसने अलाव में जलती लकड़ियों को 
 थोड़ा आगे खिसका दिया 
 लपेट लिया कम्बल को चारों ओर 
मैला-कुचैला उसका कुत्ता भी 
थोड़ा नजदीक सरक आया  
 और तभी हवा के तेज झोंके से 
खुल गया उसकी झोंपड़ी का किवाड़  
हिमपात हो रहा था बाहर 
श्वेत कतरे उतर रहे थे हौले हौले 
धरा को संवारने आए हों जैसे 
दरख्तों ने ओढ़ ली थी श्वेत चादर 
रस्ते खो गये थे और एक सी लग रही थीं
 मकानों की छतें
भूल गया वह किवाड़ बंद करना
देखने लगा एकटक 
प्रकृति के इस खेल को
इस मौसम की यह पहली बर्फ है 
कितनी मोहक और पवित्र  
खड़े-खड़े हाथ जोड़ दिए उसने !

 
सुंदर प्राकृतिक चित्रण .... पढ़ते पढ़ते ज्यादा ठंड लगने लगी :)
जवाब देंहटाएंस्वागत है संगीता जी
हटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर..अति सुन्दर..
जवाब देंहटाएंठंडक देती प्रकृति :)
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंजब आदमी प्रकृति में इतना डूब जाता है कि ईश्वर के साक्षात्कार की अनुभूति होने लगे तो फिर सभी दरवाजे खुले रह जाते हैं, ध्यान सिर्फ और सिर्फ परमपिता पर जाकर टिक जाता है।..सुंदर बात कही आपने इस कविता के माध्यम से।
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत ही गहन और सुन्दर |
जवाब देंहटाएंअमृता जी, ओंकार जी, इमरान, देवेन्द्र जी, कैलाश जी, मुकेश जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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